Monday, December 14, 2015

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अखंड भारत का निर्माण - sanatansewa.blogspot.in

खुद भी पढेँ और सभी को पढाएँ 

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इस्लामी शासन काल में षड्यंत्रिक कर और सनातन संस्कारों की हानि।

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इस्लामी आक्रमणों के १२०० वर्षों के इतिहास में धर्म की बहुत हानि हुई,
सती प्रथा, बाल विवाह, जात पात, आदि जाने कितनी ही सामाजिक बुराइयां
सनातन धर्म को छू गयीं, और काने कितनी ही विकृतियाँ सनातन धर्म को चोटिल
करती रहीं। ऐसी ही कुछ बुराइयों के बारे में भारत वर्ष की इतिहास की
पुस्तकों में पढ़ाया जाता है परन्तु उन्हें पढ़ कर लगता है की वो केवल उपरी
ज्ञान हैं, और ज्यादातर बुराइयों को सनातन धर्म से जोड़ कर ही दिखा दिया
जाता है, परन्तु ये नहीं बताया जाता की उन बुराइयों के असली कारण क्या
थे, और किन कारणों से उन बुराइयों का उदय हुआ और विस्तार हुआ ?
सनातन संस्कृति के शास्त्रों के अनुसार में मनुष्यों को १६ संस्कारों के
साथ अपना जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया गया है, जिनके नियम और उद्देश्य
अलग अलग हैं। इस्लामी आक्रमणों से पहले तक संस्कार प्रथा अपने नियमो के
अनुसार निरंतर आगे बढ़ रही थी, परन्तु इस्लामी आक्रमणों के बाद और सफलतम
अंग्रेजी स्वप्न्कार Lord McCauley ने संस्कार पद्धतियों को सनातन
संस्कृति से पृथक सा ही कर दिया।
यदि सही शब्दों में कहूं तो शायाद संस्कार प्रथा लुप्तप्राय सी ही हो
चुकी है। इस्लामी शासनों के कार्यकालों में किस प्रकार संस्कारों में कमी
हुई इसके बारे में आप सबको कुछ बताना चाहता हूँ, कृपया ध्यान से पढ़ें और
सबको पढ़ा कर जागरूक करें …. आप सबने इस्लामी शासन कालों में जजिया और
महसूल के बारे में ही सुना होगा ….
परन्तु सोचने वाली बात है की क्या इस्लामी मानसिकता के अनुसार हिन्दुओं
पर धर्मांतरण के लिए दबाव बनाने हेतु ये दो ही कर (TAX) काफी थे… ये
सोचना ही हास्यापद होगा। इस्लामी शासन कालों में समस्त १६ संस्कारों पर
कर लगाया जाता था, जिसको की नेहरु, प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम
आज़ाद और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहासकारों ने भारतीय शिक्षा
पद्धति की इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं दी। ऐसे और भी बहुत से विषय
हैं जिन पर यह बहस की जा सकती है, परन्तु वो किसी और दिन करेंगे।
अरब से जब इस्लामी आक्रमण प्रारम्भ हुए तो अपनी क्रूरता, वेह्शीपन,
आक्रामकता, दरिंदगी, इरान, मिस्र, तुर्की, इराक, आदि सब विजय करते हुए
सनातन संस्कृति को समाप्त करने मलेच्छों द्वारा ऋषि भूमि देव तुल्य अखंड
भारत पर आक्रमण किये गए। लक्ष्य केवल एक था…. दारुल हर्ब को … दारुल
इस्लाम बनाने का और इस लक्ष्य के लिए जिस नीचता पर उतरा जाए वो सब उचित
थीं। इस्लामी मानसिकता के अनुसार ऐसी ही नीच मानसिकता के अनुसार जजिया और
महसूल जैसे कर के बाद सनातन संस्कृति के १६ संस्कारों पर भी कर लगाया
गया।
संस्कारों पर कर लगाने का मुख्य कारण यह था की सनातन धर्म के अनुयायी कर
के बोझ के कारण अपने संस्कारों से दूर हो जाएँ। धीरे धीरे इस प्रकार के
षड्यंत्रों के कारण इस्लामी कट्टरपंथीयों द्वारा अपनाई गयी इस सोच का यह
लक्ष्य सिद्ध होता गया।
धीरे धीरे समय ऐसा भी आया की कुछ लोग केवल आवश्यक संस्कारों को ही करवाने
लगे, और कुछ लोग संस्कारों से पूर्णतया कट से गए।
सबसे पहले आता है गर्भाधान संस्कार …..
किसी सनातन धर्म की स्त्री द्वारा जब गर्भ धारण किया जाता था तो एक
निश्चित कर इलाके के मौलवी या इमाम के पास जमा किया जाता था और उसकी एक
रसीद भी मिलती थी। यदि उस कर को दिए बिना किसी भी सनातन धर्म के अनुसायी
के घर में कोई सन्तान उत्पन्न होती थी तो उसे इस्लामी सैनिक उठा कर ले
जाते थे और उसकी इस्लामी नियमो के अनुसार सुन्नत करके उसे मुसलमान बना
दिया जाता था।
नामकरण संस्कार- नामकरण संस्कार का षड्यंत्र यदि देखा जाए तो सबसे
महत्वपूर्ण है …इस षड्यंत्र को समझने में
नामकरण संस्कार में जब किसी बच्चे का नाम रखा जाता था तो उन पर विभिन्न
प्रकार के के कर निर्धारित किये गए थे …
उदाहरण के लिए ….कुंवर व्यापक सिंह…
इसमें “कुंवर"शब्द एक सम्माननीय उपाधि को दर्शाता है, जो की किसी
राजघराने से सम्बन्ध रखता हो।
उसके बाद"व्यापक"शब्द सनातन संस्कृति के शब्दकोश का एक ऐसा शब्द है जो जब
तक चलन में रहेगा तब तक सनातन संस्कृति जीवित रहेगी।
उसके बाद"सिंह"शब्द आता है …. जो की एक वर्ण व्यवस्था या एक वंशावली का सूचक है।
कुंवर….. पर कर १०००० रुपये
व्यापक …पर कर १००० रुपये
सिंह …… पर कर १००० रुपये
अब जो कर चुकाने में सक्षम लोग थे वो अपने अपने बजट के अनुसार अपने बाचों
के लिए शुभ नाम निकाल लेते थे।
समस्या वहाँ उत्पन्न हुई जिनके पास पैसे न हों….
अब आप सोचेंगे की ऐसे बच्चों का कोई नाम नहीं होता होगा …. ?
परन्तु ऐसा नही था … ऐसे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए भी नाम रखे
जाने का प्रावधान था।
परन्तु ऐसे नाम उस इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा मुफ्त में दिया जाता था
और यह कडा नियम था की जो नाम इमाम या मौलवी देंगे वही रखा जायेगा ..
अन्यथा दंड का प्रावधान भी होता था।
अब सोचिये की किस प्रकार के नाम दिए जाते होंगे इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा…
लल्लू राम,
झंडू राम,
कूड़े सिंह,
घासी राम,
घसीटा राम,
फांसी राम,
फुग्ग्न सिंह,
राम कटोरी,
लल्लू सिंह,
फुद्दू राम,
रोंदू सिंह,
रोंदू राम,
रोंदू मल,
खचेडू राम,
खचेडू मल,
लंगडा सिंह,
इस प्रकार के नाम इलाके के मौलवी और इमामो द्वारा मुफ्त में दिए जाते थे।
क्या आप ऐसे नाम अपने बच्चों के रख सकते हैं … कभी ?? शायद नहीं ?
विवाह संस्कार के लिए इलाके के मौलवी से स्वीकृति लेनी पडती थी, बरात
निकालने, ढोल नगाड़े बजाने पर भी कर होता था, और बरात किस किस मार्ग से
जाएगी यह भी मौलवी या इमाम ही तय करते थे।
और इस्लामिक केन्द्रों के सामने ढोल नगाड़े नहीं बजाये जायेंगे, वहां पर
से सर झुका कर जाना पड़ेगा। वर्तमान समय में असम और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में तो यह आम बात है।
अंतिम संस्कार पर तो भारी कर लगाया जाता था, जिसके कारण यह तक कहा जाता था कि यदि कर देने का पैसा नहीं है तो इस्लाम स्वीकार करो और कब्रिस्तान में दफना दो।
वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, आजमगढ़, आदि क्षेत्रों में यह आम बात है।
केरल, बंगाल, असम के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में खुल्लम खुल्ला यह फरमान सुनाया जाता है, जहाँ पर प्रशासन और पुलिस द्वारा कोई सहायता नहीं उपलब्ध करवाई जाती।
इस्लामिक शासन काल में सनातन गुरुकुल शिक्षा पद्धति को भी धीरे धीरे नष्ट किया जाने लगा, औरंगजेब के शासनकाल में तो यह खुल्लम खुल्ला फरमान सुनाया गया था कि …
किस प्रकार हिन्दुओं को मुसलमान बनाना है ?
किस किस प्रकार की यातनाएं देनी हैं ? किस प्रकार औरतों का शारीरिक मान मर्दन करना है ?
किस प्रकार मन्दिरों को ध्वस्त करना है ?
किस प्रकार मूर्तियों का विध्वंस करना है ?
मूर्तियों को तोड़ कर उन पर मल मूत्र का त्याग करके उनको मन्दिर के नीचे ही दबा देना, खासकर मंदिरों की सीढियों के नीचे, और फिर उसी के ऊपर मस्जिद का निर्माण कर दिया जाए।
मन्दिरों के पुजारियों को कटक कर दिया जाए, यदि वे इस्लाम कबूल करें तो छोड़ दिया जाए।
जितने भी गुरुकुल हैं उनको ध्वस्त कर दिया जाए और आचार्यों को तत्काल प्रभाव से मौत के घाट उतार दिया जाए।
गौशालाओं को अपने नियन्त्रण में ले लिया जाए।
कई मन्दिरों को ध्वस्त करते हुए तो वहाँ पर गाय काटी जाती थी।
वर्तमान समय में औरंगजेब के खुद के हाथों से लिखे ऐसे हस्तलेख हैं ..जिन पर उसके दस्तखत भी हैं।
ऐसे अत्याचारों और दमन के कारण उपनयन जैसा अति महत्वपूर्ण संस्कार भी विलुप्ति कि कगार पर पहुँचने लगा।
धीरे धीरे संस्कारों का यह सिलसिला ख़त्म सा होता चला गया, वानप्रस्थ और सन्यास संस्कारों को तो लोग भूल ही गए क्योंकि उनका अर्थ ही नहीं ज्ञात हो पाया आने वाली कई पीढ़ियों को।
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा एक बार पंजाब क्षेत्र में जाँच करवायी गयी थी जिसके अनुसार पंजाब के कई क्षेत्र ऐसे थे जहाँ पर लोग गायत्री महामंत्र भी भूल चुके थे, उन्हें उसका उच्चारण तो क्या इसके बारे में पता ही नहीं था।
धीरे धीरे पंजाब और अन्य क्षेत्रों में छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा उध्वस्त मन्दिरों का निर्माण करवाया गया और कई जगहों पर आचार्यों को भेजा गया जिन्होंने धर्म प्रचार एवं प्रसार के कार्य किये।
एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है ….
कृपया ध्यान से पढ़ें और समझें एक अनोखी कहानी जो भुला दी गयी SICKULAR भारतीय इतिहासकारों द्वारा और नेहरु की कांग्रेस द्वारा
औरंगजेब की मृत्यु के १० वर्ष के अंदर अंदर ही मुगलिया सल्तनत मिटटी में मिल चुकी थी, रंगीले शाह अपनी रंगीलियों के लिए प्रसिद्ध था और दिन प्रतिदिन मुगलिया सल्तनत कर्जों में डूब रही थी।
रंगीले शाह को कर्ज देने में सबसे आगे जयपुर के महाराजा था।
एक बार मौका पाकर जयपुर के महाराजा ने अपना कर्जा माँग लिया।
रंगीले शाह ने बुरे समय पर जयपुर के महाराजा से सम्बन्ध खराब करना उचित न समझा, क्योंकि आगे के लिए कर्ज मिलना बंद हो सकता था जयपुर के महाराज से.. परन्तु रंगीले शाह ने जयपुर के महाराजा की रियासतों को बढ़ा कर बहुत ही ज्यादा विस्तृत कर दिया और कहा की जो नए क्षेत्र आपको दिए गए हैं आप वहाँ से अपना कर वसूलें जिससे की कर्ज उतर जाए।
जयपुर के महाराज के प्रभाव क्षेत्र में अब गंगा किनारे ब्रिजघाट, आगरा, बिजनौर, सहारनपुर, पानीपत, सोनीपत आदि बहुत से क्षेत्र भी सम्मिलित हो गए।
इन क्षेत्रों में संस्कारों के ऊपर लगने वाले कर जजिया और महसूल आदि धार्मिक करोँ के कारण जनता त्राहि त्राहि कर रही थी, और जयपुर के महाराजा के प्रभाव क्षेत्र में आने के कारण सनातन धर्मी अपनी आशाऐँ लगा कर बैठे थे की अब यह पैशाचिक करोँ का सिलसिला बंद होगा।
परन्तु जयपुर के महाराजा ने करोँ को वापिस नहीं लिए।
मराठा साम्राज्य के पेशवा के राजदूत दीना नाथ शर्मा उन दिनों जयपुर में नियुक्त थे, उन्होंने भरतपुर के जाट नेता बदनसिंह की मदद की और जाटों की अपनी ही एक सेना बनवा डाली, जिनको पेशवा द्वारा मान्यता भी दिलवा दी गयी और ५००० की मनसबदारी भी दिलवा दी गयी।
धीरे धीरे बदनसिंह ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया और दीना नाथ शर्मा के कहने पर समस्त जगहों से मुस्लिम करोँ से पाबंदी हटवाने लगे।
जयपुर के महाराजा निसहाय हो गए क्योंकि पेशवा से सीधे टकराव उनके लिए सम्भव नहीं था।
इन्हीं दिनों बृजघाट तक का क्षेत्र जाटों द्वारा मुक्त करवा लिया गया ..जिसका नाम रखा गया गढ़मुक्तेश्वर।
बदन सिंह और राजा सूरजमल ने बहुत से क्षेत्रों पर अपना प्रभाव स्थापित किया और मुस्लिम अत्याचारों से मुक्ति दिलवाने का कार्य किया।
फिर भी ऐसी समस्याऐँ यदा कडा सामने आ ही जाती थीं, की कई कई जगहों पर मुस्लिम लोग हिन्दुओं को घेरकर उनसे कर लेते थे या फिर संस्कारों के कार्यों में विघ्न पैदा करते थे।
इस समस्या से निपटने के लिए आगे चल कर बदनसिंह के बाद राजा सूरजमल ने गंगा-महायज्ञ का आयोजन किया, जिसमे गंगोत्री से ११००० कलश मँगवाए गए गंगा जल के और उन्हें भरतपुर के पास ही सुजान गंगा के नाम से स्थापित करवाया और सभी देवी देवताओं को स्थापित करवाया गया और बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया गया।
सुजान गंगा पर आने वाले कई वर्षों तक संस्कारों के कार्य होते रहे।
१९४७ के बाद नेहरु और SICKULAR जमात ने मिल कर सुजान गंगा का अस्तित्व समाप्त कर दिया, उसमे आसपास के सारे गंदे नाले मिलवा दिए और आसपास की फेक्टरियों का गंदा पानी आदि उसमेँ गिरवा दिया।
आसपास के लोग मल-मूत्र त्याग करने लगे।
इसी वर्ष हुए एक सर्वे के अनुसार सुजान गंगा के चारों और ६५० से ज्यादा 
लोगों द्वारा प्रतिदिन मल-मूत्र त्याग किया जाता है।
आप सबसे विनम्र प्रार्थना है की अपने इतिहास को जानें, जो की आवश्यक है की अपने पूर्वजों के इतिहास जो जानें और समझने का प्रयास करें…. उनके द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों को जीवित रखें।
जिस सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए और अखंड भारत की सीमाओं की सीमाओं की रक्षा हेतु हमारे असंख्य पूर्वजों ने अपने शौर्य और पराक्रम से अनेकों बार अपने प्राणों तक की आहुति दी गयी हो, उसे हम किस प्रकार आसानी से भुलाते जा रहे हैं।
सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे।


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