Friday, July 3, 2015

महाभारत काल में भी इसकी पुष्टि मिलती है – क्योंकि महाभारत मेंवृतांत आता है –“यज्ञ में हिंसा की निंदा...

महाभारत काल में भी इसकी पुष्टि मिलती है – क्योंकि महाभारत मेंवृतांत आता है –“यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा”ये वृतांत महाभारत में शांतिपर्व के अंतर्गत अध्याय २७२ में आता है– केवल इतना ही नहीं – यहाँ ये भी बताया गया है की यदि कोई यज्ञ में पशु वध करता है – तो निश्चय ही उसका सब तप नष्ट हो गया।तस्य तेनानुभावेन मृगहिसात्मनस्तदा।तपो महत समुच्छिन्नं, तस्माद्धहिंसा न यज्ञिया।।अहिंसा सकलो धर्मोहिंसा धर्मस्तथाविधः।सत्यंतेहं प्रवक्ष्यामि, यो धर्मःसत्यवादिनाम्।।इस प्रकरण में महाराज युधिष्ठर नेभीष्म पितामह से पूछा है की धर्म तथा सुख के लिए यज्ञ कैसा करना चाहिए ? उसके उत्तर में पितामह ने एक तपस्वी ब्राह्मण -ब्राह्मणीदंपत्ति का वृतांत देते हुए बतलाया है की किसप्रकार उस तपस्वीब्राह्मण का महान तप, यज्ञ में पशुबलि देने के लिए एक वन्य मृग को मारने की इच्छा मात्र से विनष्ट हो गया। इसलिए यज्ञ में कभी हिंसा न करनी चाहिए। अहिंसा सार्वत्रिक और सारकालिक नित्य धर्म है।इस प्रमाण से ज्ञात होता है की न तो महाभारत काल में यज्ञ में पशु हिंसा का विधान था – न ही उससे पहले के काल में क्योंकि अथर्ववेद11.7.7 में लिखा है –राजसूयं वाजपेयमग्निष्टोमस्तदध्वरः।अकार्श्वमेधावुच्छिष्टे जीव बर्हिममन्दितमः।।राजसूय, वाजपेय, अग्निष्टोम, अर्कमेध, अश्वमेध आदि सब अध्वर अर्थात हिंसा रहित यज्ञ हैं, जोकिप्राणिमात्र की बुद्धि करने वाला और सुख शांति देने वाला है। एवं इस मन्त्र में राजसूय आदि सभी यज्ञो को “अघ्वर” कहा गया है जिसकाएकमात्र सर्वसम्मत अर्थ “हिंसा रहित यज्ञ है”जोकि निषेधार्थक नञ पूर्वक ‘ध्वर’हिंसायां धातु से बनता है। घ्वरो हिंसा तदभावोत्र सोध्वरः।अतः स्पष्ट है की वेदने किसी भी यज्ञ में पशुवध की आज्ञा नहीं दी,उल्टा पशुवध करने पर उसे यज्ञ ही नहीं माना। इसलिए वेद के नाम पर यज्ञो में पशुवध करना अपने को धोखा देना है, दुसरो को उल्टा रास्ता बतलाना, अथवा अपनी अज्ञानता प्रकट करना है। फिर यह भी देखिये की पशु वध करने पर प्राणिमात्र की क्या वृद्धि हुई और उसे क्या सुख शांति मिली, उल्टा प्राणी की हत्या करते समय उसे घोर यातना दी जाती है और उसकाजीवन तक समाप्त कर दिया जाता है, तब वह कर्म “बर्हिममन्दितमः” कैसे रहा ?उपरोक्त तथ्यों से प्रमाणित है कीन तो इतिहास में यज्ञो में पशु बलि का समर्थन मिलता है – ना हीवेद में – ब्रह्माण्ड ग्रंथो में भी ऐसा कुछ पाया नहीं जाता –लेकिन फिर भी कुछ मूढ़ याज्ञिक (पौराणिक) लोग “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का ढोल पीटते हुए यज्ञ में पशुवध को अहिंसा बताते हुए स्वर्ग का मार्ग तक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं –ऐसा मालूम होता है इन लोगो की बुद्धि कहीं घास चरने चली गयी है,अन्यथा वे ऐसा कभी न कहते क्योंकिदेखिये मनु महाराज ने “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ।।योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया।स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।।(५.४४-४५)अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता।दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) मेंलिखा है –गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।।नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन।प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्रआदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्धहो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकिप्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।उपरोक्त मनु स्मृति के प्रमाण से भी स्पष्ट है की यज्ञ में पशु वध का निषेध है।वेद प्रमाणों से स्पष्ट है की वेदो में पशु वध निषेध है – जबकि वेदो में पशुओ को पालने का स्पष्ट निर्देश है – यहाँ तक की– गाय, घोड़ा आदि पशुओ की हत्या करने वालो को “प्राणदंड” तक का विधान है –मनु स्मृति भी इस बात की पुष्टि करती है – ब्राह्मण ग्रन्थ भी यही कहते हैं = महाभारत भी यही कहती है – तो इससे सिद्ध है –न तो वैदिक काल में यज्ञ में पशु वध होता था – ना ही महाभारत कालमें – ये सब महाभारत युद्ध के ५००-१००० वर्ष बाद की उपज ही सिद्ध होती है –अतः सत्य सनातन वैदिक स्वरुप को पहचानिये –सभी महानुभावो से विनम्र निवेदन है कृपया सत्य को समझे – और माने –वेदो की और लौटिए –सत्य और न्याय की और लौटिए।नमस्तेनोट : ये मनुस्मृति का श्लोक – श्री राम ने – बाली के वध के समय – बाली को सुनाया भी था –ताकि बाली को पता हो की उसने जो वेदविरुद्ध कृत्य किया था – उसका दंड उसे वेद सम्मत और न्यायकारी प्रक्रिया के अधीन ही दिया जा रहा है।


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