Wednesday, July 8, 2015

पाप की अन्तिम झाँकी अपघ्नन्पवसे मृधः क्रतुवित्सोम मत्सरः । नुदस्वादेवयुञ्जनम् ॥ मेरे सूखे हृदय के...

पाप की अन्तिम झाँकी

अपघ्नन्पवसे मृधः क्रतुवित्सोम मत्सरः ।
नुदस्वादेवयुञ्जनम् ॥

मेरे सूखे हृदय के संजीवन ! तेरी पहुँच मेरे प्रत्येक संकल्प , प्रत्येक क्रिया , प्रत्येक चेष्टा में है । तू हर्ष का सरोवर है । तू पापों का विनाश कर पवित्रता का प्रवाह लाता है । पाप की ओर प्रवृत्त इस जन को पाप-पथ से हटा कर सन्मार्ग में प्रेरित कर ।

मेरे अन्दर मस्ती का सागर ठाठें मार रहा है । मैं उठूँ , बैठूँ , फिरूँ , कुछ करूँ , मस्ती की लहर मेरी प्रत्येक क्रिया के साथ-साथ उठती है । एक पवित्र हर्ष का प्रवाह है जिस में मैं दिन-रात डूबा रहता हूँ । मेरा प्रत्येक कार्य ईश्वर के समर्पण है । ऐसी अवस्था में पाप को उदित होने का अवसर कहाँ है ? सोम-रस के पहिले ही घूँट के साथ मैं पाप के बीज को नष्ट कर चुका हूँ ।
प्रभो ! फिर बात क्या है ? मस्ती के इस अटूट प्रवाह में कभी-कभी अहंकार की , अभिमान की , और इन के साथ-साथ कभी-कभी काम की , क्रोध की झाँकी-सी आ जाती है । मैं जैसे अपने आपे से बाहर हो जाता हूँ । ऐसा प्रतीत होने लगता है कि वह मस्ती कृत्रिम थी , धर्म का एक अस्थिर आवरण-सा था जो मेरे हृदय में बैठे “अदेव” को – राक्षस को – कुछ देर के लिए आवृत कर रहा था – ओट-सी दे रहा था । वास्तव में मैं “अदेवयु” – पापी ही हूँ ।
तो क्या तुम इस पाप की प्रवृत्ति को मिटा नहीं सकते ?
या ये उस की – विनाश पा रहे पाप की – अन्तिम झलकियाँ ही हैं ? नष्ट हो रहे संस्कार अपनी मोहिनी का क्षणिक म्रियमाण रूप दिखा-दिखा कर विदा हो रहे हैं ।
मैं अपने पुराने “ अदेवयु” स्वभाव का आखिरी दर्शन कर रहा हूँ । अहा ! कैसा प्यारा रूप है । मन मोहित होने लगा । मेरे सोम-रस वाले प्रभो ! अब तुम्हारा ही आसरा है । इस वृत्र का संहार कीजिये । मेरे संयम का , तप का इस परीक्षा की घड़ी में तुम्हारे सिवा और कौन रक्षक हो सकता है ? तुम्हारे सोम-रस की लाज ! उसे कहीं निष्फल न होने देना । 
तुम्हारा भक्त होकर मैं “अदेवयु” रहूँ ? 
मुझे प्रेरित कीजिये – पुण्य की ओर , अपने पवित्र मार्ग की ओर प्रेरित कीजिये ॥

पण्डित चमूपति जी
“सोम सरोवर”


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