* लोग पूछते है कि पापी सुखी क्यो है और
धर्मात्मा दुखी क्यो है। पहले यह
समझना चाहिए कि धर्म
क्यो किया जाता है। अपने पूर्व
कर्मो का कर्ज चुकाने के लिये धर्म
किया जाता है। कर्ज अपनी कमाई से
चुकाया जाता है, उधार लेकर नही।
जो लोग कष्ट सहकर भी धर्म की कमाई कर
रहे है, उनके कर्मो का कर्ज आज नही तो कल
चुकता हो जाएगा। लेकिन जिनपर पहले से
कर्मो का कर्ज है और वो दैहिक
सुखो की लालसा मे कर्मबन्ध रूपी और कर्ज
लिए जा रहे है, उनका कर्ज
चुकना उतना ही मुश्किल होगा।
* आत्मा का वैभव कर्मो की परतो के नीचे
दबा हुआ है। हमारी पूजा और भक्ति उस
कुल्हाडी के समान है जो आत्मा के खजाने पर
चढी कर्मो की मिट्टी को खोदती है।
कोई निमित्त ज्ञानी हमे किसी दबे हुए
खजाने का पता बता दे, तो हम उसे पाने के
लिए दिन-रात एक कर देगे। हमारे अंतर मे
रत्नत्रय का खजाना छिपा है, जिसे पाकर
हम तीन लोक के नाथ बन सकते है। हर खजाने
से मूल्यवान उस खजाने को पाने के लिए हम
पुरुषार्थ क्यो नही करते?
* मकान को सजाने के लिए धूल झाडकर हम
सफाई करते है, तो वह धूल हमारे शरीर पर आ
लगती है और शरीर को मैला कर देती है।
उसी प्रकार यदि हम शरीर को सजाने के
लिये सुख-साधनो का जतन करते है,
तो कर्मबन्ध रूपी धूल
हमारी आत्मा को मैला कर देती है। शरीर
को सजाने
की सजा आत्मा को भुगतनी पडती है।
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