Saturday, December 12, 2015

एम अहलूवालिया साहब ने अपनी पुस्तक :FREEDOM STRUGGLE IN INDIA के पृष्ठ 222 पर लिखा है- “The...

एम अहलूवालिया साहब ने अपनी पुस्तक :FREEDOM STRUGGLE IN INDIA के पृष्ठ 222 पर लिखा है-
“The Government was never quite happy about the Arya Samaj. They disliked it for its propaganda of self-confidence,self-help and self-reliance.Theauthorities,sometimes endowed it with fictitious power by persecuting to members whose Puritanism became political under intolerable conditions.”
अर्थात-“आर्यसमाज से सरकार को कभी भी खुशी नहीं हुई। शासकों ने आर्यसमाज को इसलिए नहीं चाहा कि यह आत्मविश्वास,स्व-सहाय और आत्म-निर्भरता का प्रचार करता था। कभी-कभी तो अधिकारियों ने इसकी शक्ति को इतना अधिक महत्व दिया कि उसके सदस्यों को दंडित किया और असहनीय दशाओं में उनके सुधारवादी आंदोलन ने राजनीतिक रूप ले लिया। ”
‘भारत का राष्ट्रीय आंदोलन एवं संविधान ‘में डॉ पर्मात्माशरण,अध्यक्ष राजनीतिशास्त्र विभाग (जो कार्यवाहक प्राचार्य भी बने),मेरठ कालेज,मेरठ :पृष्ठ -33 पर लिखते हैं—
“स्वामी दयानंद वस्तुतः अपने समय के सबसे महान देशभक्त और बड़े प्रभावशाली वक्ता थे । उन्होने अपने अनुयायियों को दो नारे दिये-
1)-‘फिर से वेदों की ओर’
2 )-‘भारत भारतीयों के लिए’
उन्होने शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारतीय शिक्षा आदर्शों -गुरुकुल प्रणाली का प्रचार किया और स्त्रियॉं की शिक्षा पर भी समान बल दिया। सामाजिक क्षेत्र में उन्होने अछूत कहे जाने वाले भाइयों के उठान के लिए अत्यंत सराहनीय प्रयत्न किया। उन्होने यह भी बताया कि ‘जाति’ का आधार ‘जन्म’ नहीं ‘कर्म’ है। साथ ही उन्होने बहू-विवाह,बाल-विवाह जैसी कुप्रथाओं का विरोध और विधवाओं के लिए ‘पुनर्विवाह’ का समर्थन किया।
राजनीतिक क्षेत्र में आर्यसमाज ने देश-प्रेम,स्वदेशी,हिन्दी,आत्म-निर्भरता और वैदिक सभ्यता व संस्कृति के पुरुत्थान के लिए विशेष कार्य किया । आर्यसमाज ने एक ओर हिंदुओं में प्रचलित पुरानी कुप्रथाओं ,रूढ़ियों,मूर्ती-पूजा आदि और दूसरी ओर पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के प्रभाव का विरोध किया।”
अपनी युवावस्था में 1857 की क्रांति में भाग ले चुके (झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के भी संपर्क में रहे थे)महर्षि स्वामी दयानन्द ‘सरस्वती’ ने 1875 ई .की चैत्र प्रतिपदा को ‘आर्यसमाज’ की स्थापना की जिसका मूल उद्देश्य ‘स्व-राज्य’प्राप्ति था। शुरू-शुरू में आर्यसमाजों की स्थापना वहाँ-वहाँ की गई थी जहां-जहां ब्रिटिश छावनियाँ थीं। ब्रिटिश शासकों ने महर्षि दयानन्द को ‘क्रांतिकारी सन्यासी’ (REVOLUTIONARY SAINT) की संज्ञा दी थी। आर्यसमाज के ‘स्व-राज्य’आंदोलन से भयभीत होकर वाईस राय लार्ड डफरिन ने अपने चहेते अवकाश प्राप्त ICS एलेन आकटावियन (A. O.)हयूम के सहयोग से वोमेश चंद्र (W.C.)बेनर्जी जो परिवर्तित क्रिश्चियन थे की अध्यक्षता में 1885 ई .में इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश साम्राज्य के ‘सेफ़्टी वाल्व’के रूप मे करवाई थी। किन्तु महर्षि दयानन्द की प्रेरणा पर आर्यसमाजियों ने कांग्रेस में प्रवेश कर उसे स्वाधीनता आंदोलन चलाने पर विवश कर दिया। ‘कांग्रेस का इतिहास’ नामक पुस्तक में लेखक -डॉ पट्टाभि सीता रमईय्या ने स्वीकार किया है कि देश की आज़ादी के आंदोलन में जेल जाने वाले ‘सत्याग्रहियों’में 85 प्रतिशत आर्यसमाजी थे।
यही वजह है कि आज भी ‘साम्राज्यवाद’ के हितैषी लोग समय-समय पर महर्षि स्वामी दयानन्द पर हमले करते रहते हैं। ‘पाखंड खंडिनी पताका’ के लेखक-प्रचारक को ‘पोंगा-पंडित’ का खिताब देना विकृत,विध्वंसक और देश-द्रोही मानसिकता का ज्वलंत उदाहरण है।


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