Monday, December 29, 2014

द्रोपदी के पांच पति थे या एक: क्या कहती है महाभारत? ————————————————————————– द्रोपदी महाभारत की एक...

द्रोपदी के पांच पति थे या एक: क्या कहती है महाभारत?

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द्रोपदी महाभारत की एक आदर्श पात्र है।

लेकिन द्रोपदी जैसी विदुषी नारी के साथ हमने बहुत

अन्याय किया है।

सुनी सुनाई बातों के आधार पर,

हमने उस पर कई ऐसे लांछन लगाये हैं।

जिससे वह अत्यंत पथभ्रष्ट,

,और धर्म भ्रष्ट नारी सिद्घ होती है।

एक ओर धर्मराज युधिष्ठर जैसा परमज्ञानी,

उसका पति है,

जिसका गुणगान करने में हमने कमी नही छोड़ी। लेकिन

द्रोपदी पर अतार्किक आरोप लगाने में भी हम पीछे नही रहे।

द्रोपदी पर एक आरोप है,

कि उसके पांच पति थे।

हमने यह आरोप महाभारत की साक्षी के आधार पर नही,

बल्कि सुनी सुनाई कहानियों के आधार पर लगा दिया।

बड़ा दु:ख होता है,

जब कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति भी,

इस आरोप को अपने लेख में

या भाषण में दोहराता है।

ऐसे व्यक्ति की बुद्घि पर तरस आता है,

और मैं सोचा करता हूं

कि ये लोग अध्ययन के अभाव में ऐसा बोल रहे हैं, पर इन्हें यह

नही पता कि ये भारतीय संस्कृति का कितना अहित कर रहे

हैं।

आईए महाभारत की साक्षियों पर विचार करें!

जिससे हमारी शंका का समाधान हो सके

कि द्रोपदी के पांच पति थे या एक,

और यदि एक था तो फिर वह कौन था?

जिस समय द्रोपदी का स्वयंवर हो रहा था

उस समय पांडव अपना वनवास काट रहे थे।

ये लोग एक कुम्हार के घर में रह रहे थे

और भिक्षाटन के माध्यम से अपना जीवन यापन करते थे,

तभी द्रोपदी के स्वयंवर की सूचना उन्हें मिली।

स्वयंवर की शर्त को अर्जुन ने पूर्ण किया।

स्वयंवर की शर्त पूरी होने पर

द्रोपदी को उसके पिता द्रुपद ने

पांडवों को भारी मन से सौंप दिया।

राजा द्रुपद की इच्छा थी,

कि उनकी पुत्री का विवाह

किसी पांडु पुत्र के साथ हो,

क्योंकि उनकी राजा पांडु से गहरी मित्रता रही थी।

राजा द्रुपद पंडितों के भेष में छुपे हुए पांडवों को पहचान

नही पाए,

इसलिए उन्हें यह चिंता सता रही थी ,

कि आज बेटी का विवाह उनकी इच्छा के अनुरूप

नही हो पाया।

पांडव द्रोपदी के साथ अपनी माता कुंती के पास पहुंच गये।

माता कुंती ने क्या कहा

पांडु पुत्र भीमसेन,

अर्जुन,

नकुल और सहदेव ने

प्रतिदिन की भांति अपनी भिक्षा को लाकर

उस सायंकाल में भी

अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठर को निवेदन की।

तब उदार हृदया कुंती माता द्रोपदी से कहा-’भद्रे!

तुम भोजन का प्रथम भाग लेकर उससे बलिवैश्वदेवयज्ञ करो ,

तथा ब्राहमणों को भिक्षा दो।

अपने आसपास जो दूसरे मनुष्य आश्रित भाव से रहते हैं,

उन्हें भी अन्न परोसो।

फिर जो शेष बचे

उसका आधा हिस्सा भीमसेन के लिए रखो।

पुन: शेष के छह भाग करके

चार भाईयों के लिए चार भाग

पृथक-पृथक रख दो,

तत्पश्चात मेरे और अपने लिए भी

एक-एक भाग अलग-अलग परोस दो।

उनकी माता कहती हैं

कि कल्याणि!

ये जो गजराज के समान शरीर वाले,

हष्ट-पुष्ट गोरे युवक बैठे हैं ,

इनका नाम भीम है,

इन्हें अन्न का आधा भाग दे दो,

क्योंकि यह वीर सदा से ही बहुत खाने वाले हैं।

महाभारत की इस साक्षी से स्पष्ट है,

कि माता कुंती से पांडवों ने ऐसा नही कहा था

कि आज हम तुम्हारे लिए बहुत अच्छी भिक्षा लाए हैं और न

ही माता कुंती ने उस भिक्षा को (द्रोपदी को) अनजाने में

ही बांट कर खाने की बात कही थी।

माता कुंती विदुषी महिला थीं,

उन्हें द्रोपदी को अपनी पुत्रवधु के रूप में पाकर पहले

ही प्रसन्नता हो चुकी थी।

राजा द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न

पांडवों के पीछे-पीछे उनका सही ठिकाना

जानने और उन्हें सही प्रकार से समझने के लिए

भेष बदलकर आ रहे थे,

उन्होंने पांडवों की चर्चा सुनी

उनका शिष्टाचार देखा।

पांडवों के द्वारा दिव्यास्त्रों,

रथों,

हाथियों,

तलवारों,

गदाओं और फरसों के विषय में

उनका वीरोचित संवाद सुना।

जिससे उनका संशय दूर हो गया ,

और वह समझ गये

कि ये पांचों लोग पांडव ही हैं ,

इसलिए वह खुशी-खुशी अपने पिता के पास

दौड़ लिये।

तब उन्होंने अपने पिता से जाकर

कहा-’पिताश्री!

जिस प्रकार वे युद्घ का वर्णन करते थे,

उससे यह मान लेने में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता

कि वह लोग क्षत्रिय शिरोमणि हैं।

हमने सुना है कि वे कुंती कुमार

लाक्षागृह की अग्नि में जलने से बच गये थे।

अत: हमारे मन में जो पांडवों से संबंध करने

की अभिलाषा थी,

निश्चय ही वह सफल हुई जान पड़ती है।

राजकुमार से इस सूचना को पाकर

राजा को बहुत प्रसन्नता हुई।

तब उन्होंने अपने पुरोहित को

पांडवों के पास भेजा ,

कि उनसे यह जानकारी ली जाए

कि क्या वह महात्मा पांडु के पुत्र हैं?

तब पुरोहित ने जाकर पांडवों से कहा –

‘वरदान पाने के योग्य वीर पुरूषो!

वर देने में समर्थ पांचाल देश के राजा द्रुपद

आप लोगों का परिचय जाननाा चाहते हैं।

इस वीर पुरूष को लक्ष्यभेद करते देखकर

उनके हर्ष की सीमा न रही।

राजा द्रुपद की इच्छा थी,

कि मैं अपनी इस पुत्री का विवाह

पांडु कुमार से करूं।

उनका कहना है कि

यदि मेरा ये मनोरथ पूरा हो जाए

तो मैं समझूंगा कि यह मेरे शुभकर्मों का फल

प्राप्त हुआ है।

तब पुरोहित से धर्मराज युधिष्ठर ने कहा

-पांचाल राज दु्रपद ने यह कन्या

अपनी इच्छा से नही दी है,

उन्होंने लक्ष्यभेद की शर्त रखकर

अपनी पुत्री देने का निश्चय किया था।

उस वीर पुरूष ने उसी शर्त को पूर्ण करके

यह कन्या प्राप्त की है,

परंतु हे ब्राहमण!

राजा द्रुपद की जो इच्छा थी

वह भी पूर्ण होगी,

(युधिष्ठर कह रहे हैं कि द्रोपदी का विवाह उसके

पिता की इच्छानुसार पांडु पुत्र से ही होगा)

इस राज कन्या को मैं

(यानि स्वयं अपने लिए, अर्जुन के लिए नहीं ) सर्वथा ग्रहण

करने योग्य एवं उत्तम मानता हूं



पांचाल राज को अपनी पुत्री के लिए

पश्चात्ताप करना उचित नही है।

तभी पांचाल राज के पास से एक व्यक्ति आता है,

और कहता है-

राजभवन में आप लोगों के लिए भोजन तैयार है।

तब उन पांडवों को वीरोचित

और राजोचित सम्मान देते हुए

राजा द्रुपद के राज भवन में ले जाया जाता है।

महाभारत में आता है

कि सिंह के समान पराक्रम सूचक

चाल ढाल वाले पांडवों को

राजभवन में पधारे हुए देखकर

राजा द्रुपद,

उनके सभी मंत्री,

पुत्र,

इष्टमित्र आद सबके सब अति प्रसन्न हुए।

पांडव सब भोग विलास की सामग्रियाों को छोड़कर पहले

वहां गये

जहां युद्घ की सामग्रियां रखी गयीं थीं।

जिसे देखकर राजा द्रुपद और भी अधिक प्रसन्न हुए, अब उन्हें

पूरा विश्वास हो गया

कि ये राजकुमार पांडु पुत्र ही हैं।

तब युधिष्ठर ने पांचाल राज से कहा कि राजन!

आप प्रसन्न हों

क्योंकि आपके मन में जो कामना थी,

वह पूर्ण हो गयी है।

हम क्षत्रिय हैं और महात्मा पांडु के पुत्र हैं।

मुझे कुंती का ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठर समझिए

तथा ये दोनों भीम और अर्जुन हैं।

उधर वे दोनों नकुल और सहदेव हैं।

महाभारतकार का कहना है

कि युधिष्ठर के मुंह से ऐसा कथन सुनकर

महाराज दु्रपद की आंखों में

हर्ष के आंसू छलक पड़े।

शत्रु संतापक द्रुपद ने बड़े यत्न से

अपने हर्ष के आवेग को रोका,

फिर युधिष्ठर को उनके कथन के अनुरूप ही

उत्तर दिया।

सारी कुशलक्षेम

और वारणाव्रत नगर की

लाक्षागृह की घटना

आदि पर विस्तार से चर्चा की।

तब उन्होंने उन्हें अपने भाईयों सहित

अपने राजभवन में ही ठहराने का प्रबंध किया।

तब पांडव वही रहने लगे।

उसके बाद महाराज दु्रपद ने

अगले दिन अपने पुत्रों के साथ जाकर युधिष्ठर से कहा-

‘कुरूकुल को आनंदित करने वाले

ये महाबाहु अर्जुन

आज के पुण्यमय दिवस में

मेरी पुत्री का विधि पूर्वक पानी ग्रहण करें।

तथा अपने कुलोचित मंगलाचार का पालन करना आरंभ कर दें।

तब धर्मात्मा राजा युधिष्ठर ने उनसे कहा-’राजन! विवाह

तो मेरा भी करना होगा।

द्रुपद बोले-’हे वीर!

तब आप ही विधि पूर्वक

मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करें।

अथवा आप अपने भाईयों में से

जिसके साथ चाहें उसी के साथ

मेरी पुत्री का विवाह करने की आज्ञा दें।

दु्रपद के ऐसा कहने पर

पुरोहित. महर्षि धोम्य ने

वेदी पर प्रज्वलित अग्नि की स्थापना करके

उसमें मंत्रों की आहुति दी ,

और युधिष्ठर व कृष्णा (द्रोपदी) का विवाह संस्कार संपन्न

कराया।

इस मांगलिक कार्यक्रम के संपन्न होने पर

द्रोपदी ने सर्वप्रथम अपनी सास कुंती से

आशीर्वाद लिया,

तब माता कुंती ने कहा-’पुत्री!

जैसे इंद्राणी इंद्र में,

स्वाहा अग्नि में…

भक्ति भाव एवं प्रेम रखती थीं,

उसी प्रकार तुम भी अपने पति में अनुरक्त रहो।’

इससे सिद्घ है

कि द्रोपदी का विवाह अर्जुन से नहीं

बल्कि युधिष्ठर से हुआ

इस सारी घटना का उल्लेख आदि पर्व में दिया गया है।

उस साक्षी पर विश्वास करते हुए

हमें इस दुष्प्रचार से बचना चाहिए कि

द्रोपदी के पांच पति थे।

माता कुंती भी जब द्रोपदी को आशीर्वाद दे रही हैं

तो उन्होंने भी कहा है

कि तुम अपने पति में अनुरक्त रहो,

माता कुंती ने पति शब्द का प्रयोग किया है

न कि पतियों का।

इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है

कि द्रोपदी पांच पतियों की पत्नी नही थी।

माता कुंती आगे कहती हैं कि भद्रे!

तुम अनंत सौख्य से संपन्न होकर

दीर्घजीवी तथा वीरपुत्रों की जननी बनो।

तुम सौभाग्यशालिनी,

भोग्य सामग्री से संपन्न,

पति के साथ यज्ञ में बैठने वाली

तथा पतिव्रता हो।

माता कुंती यहां पर अपनी पुत्रवधू द्रोपदी को

पतिव्रता होने का निर्देश भी कर रही हैं।

यदि माता कुंती द्रोपदी को पांच

पतियों की नारी बनाना चाहतीं

तो यहां पर उनका ऐसा उपदेश उसके लिए नही होता।

सुबुद्घ पाठकबृंद!

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है ,

कि हमने द्रोपदी के साथ अन्याय किया है।

यह अन्याय हमसे उन लोगों ने कराया है ,

जो नारी को पुरूष की भोग्या वस्तु मानते हैं,

उन लम्पटों ने अपने पाप कर्मों को बचाने

व छिपाने के लिए

द्रोपदी जैसी नारी पर दोषारोपण किया।

इस दोषारोपण से भारतीय संस्कृति का बड़ा अहित हुआ।

ईसाईयों व मुस्लिमों ने

हमारी संस्कृति को

अपयश का भागी बनाने में कोई कसर नही छोड़ी।

जिससे वेदों की पावन संस्कृति

अनावश्यक ही बदनाम हुई।

आज हमें अपनी संस्कृति के बचाव के लिए

इतिहास के सच उजागर करने चाहिए ,

जिससे हम पुन: गौरव पूर्ण अतीत

की गौरवमयी गाथा को लिख सकें ,

और दुनिया को ये बता सकें कि क्या थे

और कैसे थे…




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