Sunday, April 19, 2015

आनन्द सुधासार दयाकर पिला गया। भारत को दयानन्द दुबारा जिला गया।। ...

आनन्द सुधासार दयाकर पिला गया।

भारत को दयानन्द दुबारा जिला गया।।



डाला सुधार वारि बढ़ी बेल मेल की।

देखो समाज फूल फबीले खिला गया।।

-महाकवि शंकर कृत



विक्रम की 19वीं शताब्दी के वृद्ध भारत में वैदिक धर्म, भारतीय सभ्यता और समाज की अभूतपूर्व कल्पनातीत तथा विलक्षण अवस्था हो गई थी। एक ओर शुद्ध, सनातन, सरल वैदिक धर्म की पवित्र मन्दाकिनी सैकड़ों युगों के असंख्य समय में प्रवाहित रह कर कपोल-कल्पित, नाना नवीन मतों के आडम्बरों से उसी प्रकार कुलुषित बन गई थी। जिस प्रकार गंगोत्री से चली हुई भागीरथी की पुण्यसलिला, विशुद्ध धारा विस्तृत विविध भूभागों में भ्रमण करके और और मलीन जलवाली अनेक नदियों से मिलकर गंगासागर में गदली और गर्हित हो गई हैं। सनातन वैदिक धर्म के ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों काण्डों का स्थान मिथ्याविश्वास, तान्त्रिक जादू टोने और पूजा ले लिया था। परमतत्त्वविवेचन के स्थान में मिथ्याविश्वासमूलक विविध मतवाद मनुष्यों के विचारों पर अधिकार पा गये थे। मनुष्य, वैदिक कर्मकाण्ड के सारभूत पंचमहायज्ञों को त्यागकर मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण की सिद्धि में अपने अमूल्य समय को बिताने लगे थे। सर्वव्यापक परमपिता की उपासना से विमुख बन कर कपोल कल्पित आधुनिक देवी-देवताओं की पूजा में तत्पर थे। देवस्थान भंग, चरस आदि मादक द्रव्यों से उन्मत, दुराचारी, निरक्षर भट्टाचार्य पुजारियों (पूजा के शत्रुओं) से भरे रहते थे। जनता आचार्य आदि सच्चे तीर्थों को भूल कर जल-स्थल आदि को ही तीर्थ मान मान बैठी थी। वैदिक वर्णव्यवस्था बिलकुल लुप्त हो गई थी। उस के स्थान में जन्ममात्र के गर्वित, गुण-कर्म से रहित पुरुषाधम ब्राह्मणादि वर्ण के अभिमानी बन गये थे। ब्रह्मचारी और संन्यासी नाममात्र को शेष रह गये थे, परन्तु उनका वेश धारण करके लाखों विद्याशून्य, अकर्मण्य, वकवृत्ति और बिडालवृति बने हुए वंचकजन इस वसुन्धरा के भार को बढ़ा रहे थे और श्रद्धालु प्रजा को दिन-दहाड़े लूट रहे थे। सच्चे योगियों का स्वरूप तो योगशास्त्र में ही रह गया था किन्तु उन के नाम को लेकर भिक्षा से पापी पेट को भरने वाले जोगियों की एक पृथक् जाति (समुदाय) ही बन गई थी। सर्वमान्य आचार्य पदवी मृतकों का माल उड़ाने वाले अचारजों को मिल गई थी। अन्नतः प्रायः सारे के सारे वैदिक और आर्षप्रयोगों और नामों का यथास्वरूप और प्रयोजन उलट-पुलट हो गया था। सनातन वैदिक धर्म का कलेवर ही बदल गया था। श्रुतियों का नाम ही सुनाई देता था, उन का स्वरूप लुप्तप्राय हो गया था। जनता में यहां तक मूर्खता फैल गई थी कि वे अन्य देवताओं के समान वेदों को भी कोई देहधारी देवता समझने लगे थे। उनकी मूर्तियों तक की कल्पना हो गई थी। वेदों के प्रमाणों के स्थान में अनेक आधुनिक ग्रन्थ और संस्कृत के श्लोक और वाक्यमात्र तक प्रमाण माने जाने लगे थे। धर्म कुछ रूढि़यों (रस्म-रिवाज) का ही नाम रह गया था यूं कहिए कि सर्वत्र रूढि़यों का ही राज्य था।

दूसरी ओर योरुप से उठी हुई पाश्चात्य सभ्यता की प्रबल पछवा आंधी प्राचीन तथा पूर्वीय सभ्यता का सब कुछ उड़ा ले जाकर उस को तितन-बितर कर देने की धमकी दे रही थी। ‘यथा राजा तथा प्रजाः’ की कहावत के अनुसार पराजित भारतीय प्रजा अपने गौरांग प्रभुओं का रहन-सहन और उठने-बैठने तक की नकल करने में अपना गौरव समझती थी। वह उनकी वेश, भूषा, आहार के अनुकरण से ही सन्तुष्ट न थी, प्रत्युत प्रत्येक विषय में उन की विचार परम्परा का भी पीछा करती थी। सहस्त्रों ग्रन्थों से संस्थापित और संसिद्ध सत्य भी पाश्चात्य विद्वानों के प्रमाणों के बिना सिद्धान्त नहीं माने जाते थे। भूगोल, खगोल, रसायन तथा पदार्थविज्ञान आदि सारी विद्याओं तथा संगीत, शिल्प, स्थापत्य, चित्रण आदि समस्त कलाओं के आविष्कर्त्ता भी पाश्चात्य पुरुष ही समझे जाते थे। पाश्चात्य सभ्यता के ही प्रकाश में समस्त विषयों का अवलोकन किया जाता था। उन के ही हेतुवाद वा तर्कशैली से धर्माधर्म की भी परीक्षा की जाती थी। शिखा, सूत्र, आचमन, मार्जन आदि सारे धर्मकत्य क्यों ! और कैसे ! की कसौटी पर कसे जाते थे। सारे धर्म-कर्मों का निदान वा मूल ऐहित वा सांसारिक सुख ही माना जाता था।

जहां एक ओर ‘अविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणी मामकी तनुः’ इस नाममात्र के ब्राह्मणों के वाक्य पर श्रद्धा रखने वाले, रुढि़यों के परम उपासक, पुराने आचार-विचार के लोग किसी भी संस्कृत के ग्रन्थ वा वाक्य को प्रत्येक प्रचलित कुप्रथा और मूर्खता का पोषक पुष्ट प्रमाण मानते थे। वहां पाश्चात्य शिक्षादीक्षित और आलोकित नवयुवक तर्करहित ब्रह्मवाक्य को भी सुनने के लिए तैयार न थे। परिणामतः नवशिक्षित नई पौध के लोग निरीश्वरवादी, सन्देहवादी वा भोगवादी बन कर प्राचीन सभ्यता और सनातन धर्म से बिल्कुल विमुख हो रहे थे। वे अपने पूर्व पुरुषों को वृद्ध मूर्ख (Old fool) कह कर हंसते थे।

अच्चजात्यभिमानी हिन्दू लोगों में कुछ तो धन-कलत्र के लोभ से और कुछ पुराण ग्रन्थों की असम्बद्ध कथाओं तथा हिन्दू रुढि़यों की कठोरता से उद्विग्र होकर ईसाई आदि विधर्मी बनते जाते थे। नीच कही जाने वाली जातों के जन उच्चम्मन्य हिन्दुओं के तिरस्कार, अत्याचार और अमानुषिक व्यवहार से मर्माहात होकर ईसाई पादरियों के प्रभाव में आकर दिनों-दिन हिन्दू समुदाय का कलेवर क्षीण और ईसाई मत का शरीर पीन बना रहे थे और प्रातः स्मरणीय श्री राम और कृष्ण की निन्दा से निज जिह्वा को अपवित्र करते थे।

दूसरी ओर बहुत से हिन्दू नित्य प्रति मुसलमानों के फन्दे में फसते थे। देववाणी वा आर्य भाषा (हिन्दू) का पठन प्रायः पुरोहितों का ही काम रह गया था। अन्य व्यवसायी वा कारबारी लोग महा महिमामय मौलवियों की पदचर्या और फारसी भाषा की आराधना को ही अपना अहोभाग्य और गौरववर्धक समझते थे। उस समय जालसाजी की जड़ और सर्पाकार फारसी लिपि से अनभिज्ञजनों को सभ्यता की परिधि से बाहर समझा जाता था। सर्वगुण आगरी देवनागरी की ‘हिन्दगी’ कह कर निन्दा की जाती थी। मौलवियों के अहर्निश के सहवास से फारसी पढ़े हुए कई पुरुष तो खुल्लमखुल्ला मुसलमानी मत में दीक्षित हो जाते थे और शेष सारे आचार-विचारों से मुसलमान अवश्य बन जाते थे। इसलिए ‘फारसी पढ़ा आधा मुसलमान’ की कहावत प्रचलित हो गई थी। उन दिनों वैदिक धर्म का विकृत रूप ‘हिन्दूमत’ ऐसा कच्चा धागा बन रहा था कि उस को जो चाहता था एक झटके से तोड़ सकता था। वह ईसाई वा मुसलमान के छुए हुए जलमात्र के पान से सदा के लिए विदा हो जाता था और इसलिए हिन्दू समुदाय ईसाई मुसलमानों के लिए सुलभ भोजन वा स्वादु ग्रास ( तर लुकमा ) बन रहा था। फलतः गो और ब्राह्मण के रक्षकों के समूह का प्रतिदिन ह्नास हो रहा था।

इस प्रकार नित्य प्रति क्षीण-कलेवरा आर्यजाति मृत्यु के मुख में जा रही थी। प्राचीन आर्यसभ्यता पग-पग पर पराभव पाकर अपने प्राचीन वैभव और महिमा को खो रही थी। जो आर्यजाति और वैदिक धर्म ८०० वर्ष तक के मुसलमानी अत्याचारपूरित शासन और तलवार से नष्ट न हो सका था, वह अब पाश्चात्यों के सम्मोहनास्त्र से महानिद्रा में निमग्न होने को उद्यत था। परन्तु सब सभ्यताओं की आदि जननी आर्यसभ्यता और सब धर्मो के आदिस्त्रोत वैदिकधर्म की उस प्रकार पशुतुल्य मृत्यु करुणावरुणालय परमपिता को अभिमत न थी, इसलिए दयामय ने असीम दया से निज नित्यव्यवस्थानुसार इस धर्मसंकट के समय धर्म की रक्षा के लिए दयामूर्ति और आनन्द राशि ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव भव्य भारत में किया।

ऋषि दयानन्द की उज्ज्वल जीवनी की पुण्य-गाथा एक पृथक् विषय है। यहां उस का वर्णन प्रकरणान्तर होगा। किस प्रकार ऋषि दयानन्द ने सब कुछ त्यागकर सत्य संन्यासी बनकर पूर्णतः सत्य विद्याओं के अभ्यास और भारत के कोने-कोने में परिभ्रमण के पश्चात् इस देश की पतित अवस्था का निरीक्षण किया और उससे द्रवीभूत होकर वैदिक धर्म के पुररुद्धारर्थ और संसार मात्र के परोपकारार्थ आर्यसमाज की स्थापना की। बातें वेद के नामलेवा प्रायः सभी पुरुषों को विदित हैं। इस समय उसी आर्यसमाज की स्थापना का विषय प्रस्तुत है।

ऋषि दयानन्द ने गुरु-गवेषणा और अतुल अन्वेषण के पश्चात् जिस सनातन वैदिक धर्म के सिद्धान्तों की स्थापना की थी। उन के लगातार प्रचार के लिए उन्होंने बहुत से श्रद्धालु धार्मिक पुरुषों की सहायता तथा राज्य मान्य राजा श्री पानाचन्द आनन्द जी की आयोजना के अनुसार भारत की प्रसिद्ध समृद्धिशालिनी समुद्रतीरवर्तिनी मुम्बापुरी (बम्बई) गिरगांव में डॉ. मानिकचन्द जी की वाटिका में चैत्र सुदि ५ संवत् १९३२ विक्रमीय, १७१७ शालिवाहनशक बुधवार, तदनुसार १० अप्रैल सन् १८७५ ई. को प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की। उस के २८ नियम सर्वसम्मति से निर्धारित किये गये। इन्हीं नियमों में ऋषि दयानन्द की आत्मा का प्रतिबिम्ब और आर्यसमाज का उद्देश्य वर्तमान था। आगे चल कर लाहौर आर्यसमाज की स्थापना के समय इन्हीं २८ नियमों को संक्षिप्त करके सम्प्रति प्रचलित आर्यसमाज के निम्नलिखित १० नियमों का रूप दिया गया। बम्बई आर्यसमाज के नियमों की संख्या के अधिक होने का यह कारण था कि उन में आर्यसमाज के कार्यनिर्वाहक उपनियम भी सम्मिलित थे। लाहौर में उपनियमों को पृथक् कर के मूल सिद्धान्त रूप नियमों को ही मुख्य दश नियमों के रूप में प्रचलित किया गया।

आर्यसमाज के नियम

1. सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।

2. ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नितय, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है उसी की उपासना करनी योग्य है।

3. वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।

4. सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

5. सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिए।

6. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।

7. सब से प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोगय वर्त्तना चाहिए।

8. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्वि करनी चाहिए।

9. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए।

10. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।

यहां आर्य समाज के दश नियमों की व्याख्या के लिए स्थान नहीं है, पर इतना कहे बिना नहीं रहा जाता कि आर्यसमाज की स्थापना ऐसे सर्वव्यापक और सर्वहितैषी नियमों पर हुई थी कि संसार के सब राष्ट्रों और जातियों के निवासी उन पर चल कर सर्वदा अपनी उन्नति कर सकते हैं। आर्यसमाज का संगठन भी दूरदर्शितापूर्वक ऐसी प्रजासत्तात्मक परिपाटी पर किया गया है कि उस से प्रत्येक राष्ट्र में, सब प्रकार की शासन-प्रणालियों में सर्वोत्तम और सर्वसुखदायक प्रजासत्तात्मक शासन का विकास और अभ्यास (Training) पूर्ण रूप से हो सकते हैं। आर्यसमाज के संगठन में उस के संस्थापक महर्षि ने अपने व्यक्ति तक के लिए कोई विशेष स्थान वा पद नहीं रक्खा था, वे अपने आप को भी आर्यसमाज का एक ‘साधारण सदस्य’ समझते थे।एक बार लाहौर आर्यसमाज ने जब उन से एक अधिवेशन का प्रधान पद स्वीकार करने की प्रार्थना की थी तो उन्होंने यही उत्तर दिया था कि आप की समाज का प्रधान विद्यमान ही है, वही अपना कर्तव्य पालन करे। एक साधारण सदस्य के रूप में मैं भी आपके कार्य म कार्य में योग दे सकता हूँ। आर्यसमाज ने भारत के प्रजासत्तात्मक शासन-प्रणाली के प्रचार में बहुत कुछ सहायता प्रदान की है। उस ने भारत अन्य सम्प्रदायों और मतों को भी संगठित हो कर काम करने की रीति सिखलाई है। और यहां के कई सम्प्रदाय संगठन अब आर्यसमाज से भी आगे जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द के कई लेखों के देखने से ज्ञात होता है कि उन्होंने आर्यसमाज से संसार के उपकार और देशदेशान्तरों में वैदिक धर्म के प्रचार की बड़ी-बड़ी आशाएं बांधी थी। उन्होंने अपनी कोई गद्दी आदि न बनाकर आर्यसमाज को ही अपना उत्तराधिकारी माना था और उनके उद्देश्य के साफल्य की सारी आशाएं आर्यसमाज में केन्द्रित कीं। महर्षि के स्वनामधन्य सच्चे अनुयायी इन आशाओं की पूर्ति की लिए प्राण-पण से पूरा यत्न कर रहे हैं।




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