Friday, August 19, 2016

राजेन्द्र जिज्ञासु की अनार्ष बातें मानें या वैदिक ऋषियों की आर्ष बातें ? मैं डॉ. राधावल्लभ, सेवादार,...

राजेन्द्र जिज्ञासु की अनार्ष बातें मानें या वैदिक ऋषियों की आर्ष बातें ?
मैं डॉ. राधावल्लभ, सेवादार, दर्शन योग महाविद्यालय और वानप्रस्थ साधक आश्रम, रोजड़ आप सभी विद्वान महानुभावों के समक्ष आपके मार्गदर्शन की अपेक्षा से कुछ प्रश्न और विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ।
फरवरी 2016 में वानप्रस्थ साधक आश्रम, रोजड़ के द्वारा एक पत्रक निकाला गया था। इस पत्रक में कहा गया था कि जो श्रद्धालु किन्हीं कारणों से चाहते हुए भी अपने घर में यज्ञ नहीं कर पाते हैं, उनके लिए आश्रम के अग्रिहोत्र प्रशिक्षण केन्द्र में वानप्रस्थ आश्रम की ओर से यज्ञ-हवन करवाने की सुविधा उपलब्ध की जा रही है। अत: जो यज्ञ प्रेमी सज्जन अपने घर में यज्ञ न कर पा रहे हों तो वे दैनिक यज्ञ की राशि वानप्रस्थ साधक आश्रम में दान करके तुल्य पुण्य अर्जन कर सकते हैं।
प्रसिद्ध आर्य इतिहासविद् श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इस पत्रक की निन्दा करने और इस धार्मिक कार्य को रोकने की इच्छा से एक लेख लिखा है जिसे परोपकारी पत्रिका के अगस्त (प्रथम) 2016 के अंक में पृष्ठ 8 पर छापा गया है। इस लेख में वानप्रस्थ संस्था की मानहानि करने के उद्देश्य से कहा गया है कि :-
‘‘आत्म शुद्धि, कल्याण, निर्माण के लिए सन्ध्या, हवन, जप, तप, सेवा, साधना मुझे आप ही करनी होगी। (रोजड़ आश्रम वाले) अब हमें यह प्रलोभन दे रहे हैं कि आप घर में भले ही यज्ञ न कीजिए। रोजड़ दान भेज कर यज्ञ-हवन का पुण्य प्राप्त कीजिए। इसका क्या अर्थ हुआ? जैसे कभी योरूप में किए गए व न किए गए पापों के लिए पोप से क्षमा पत्र क्रय करके लोग स्वर्ग में सीट पक्की करवाते थे। वही कुछ वानप्रस्थ साधक आश्रम के हमारे माननीय आचार्यों व योगियों को सूझा है। रोजड़ आश्रम यज्ञ-हवन की बिक्री कर ही रहा है।’’
जिज्ञासु जी के उपरोक्त वक्तव्य से जो प्रश्न उपस्थित हुए हैं, उन्हें मैं आपके सामने रखता हूँ:-
प्रश्न 1 : न्याय दर्शन के वात्स्यायन भाष्य (4-1-60) में कहा गया है कि ‘‘अशक्तो विमुच्यते” इत्येतदपि… अर्थात् जो स्वयं यज्ञ करने में अशक्त-असमर्थ हो, वह बाह्य शक्ति (अन्य समर्थ) द्वारा यज्ञ कराए। उसके लिए उसका शिष्य हवन करे, वह शिष्य विद्या द्वारा खरीदा हुआ है, अथवा आजीविका के लिए जो हवन करता है, वह पुरोहित (क्षीरहोता) उस अशक्त व्यक्ति के लिए हवन करे।
इस शास्त्रीय प्रमाण से स्पष्ट है कि एक के लिए दूसरा हवन कर सकता है लेकिन जिज्ञासु जी हमारे वैदिक ऋषियों की बात को नहीं मानते। वे तो कहते हैं कि वानप्रस्थ साधक आश्रम वाले यज्ञ-व्यापार आरम्भ करके भयंकर भूल कर रहे हैं। आप बताएं कि कौन भूल कर रहा है, हमारे वात्स्यायन ऋषि की विचारधारा के अनुरूप कार्य करने वाले गृहत्यागी लोग या जिज्ञासु जी?
प्रश्न 2 : मीमांसा दर्शन में प्रश्न उठाया गया कि सभी ने मिलकर याग (यज्ञ) का संपादन किया है, तो पुण्य किसको मिलेगा? तो उत्तर आया कि ‘‘कर्मकरो वा भृतत्वात्” (मीमांसा दर्शन अध्याय 6 पाद 3 सूत्र 24) अर्थात् यज्ञ के आयोजक (धन व्यय करने वाले यजमान) को ही यज्ञ का फल मिलेगा। ‘‘तस्मिंश्च फलदर्शनात्” (मीमांसा दर्शन अध्याय 6 पाद-3 सूत्र 25) अर्थात् उस याग (यज्ञ) के स्वामी यजमान में ही फल प्राप्ति देखा जाने से पुरोहितों को फल नहीं मिलेगा। उन्होंने तो अपना पारिश्रमिक दक्षिणा (दान) प्राप्त कर लिया है।
जिज्ञासु जी महर्षि जैमिनी की इस मान्यता से एकदम उलटे चलते हुए वानप्रस्थ आश्रम की इस अग्निहोत्र योजना के संबंध में कहते हैं कि अब वानप्रस्थ साधक आश्रम आर्यों को पोपों की पगडंडी पर ले जाने लगा है। मित्रों, कृपया बताएं कि वानप्रस्थ आश्रम जैमिनी ऋषि के वचनों का पालन कर आर्यों को मोक्ष की पगडंडी पर ले जा रहा है या जिज्ञासु जी के अनुसार पोपों की?
प्रश्न 3: महर्षि दयानन्द संस्कार विधि ग्रन्थ में गृहाश्रम प्रकरण अन्तर्गत ‘‘अथाग्निहोत्रम्” में लिखते हैं कि दोनों स्त्री-पुरुष अग्निहोत्र भी दोनों समय में नित्य किया करें। किसी विशेष कारण से स्त्री व पुरुष अग्निहोत्र के समय दोनों साथ उपस्थित न हो सकें तो एक ही अकेली स्त्री व पुरुष दोनों की ओर का कृत्य कर लेवें अर्थात् एक-एक मन्त्र को दो-दो बार पढ़ के दो-दो आहुति करें।
यहां स्त्री-पुरुष तो उपलक्षण (उदाहरण) मात्र हैं। अब आप बताएं मित्रों कि क्या हम महर्षि दयानंद की बात मानें, जिससे यह सिद्धांत निकलकर आता है कि एक व्यक्ति, दूसरे के द्वारा अग्निहोत्र करवा कर पुण्य प्राप्त कर सकता है या जिज्ञासु जी की मानें, जिन्होंने दूसरों के माध्यम से करवाए यज्ञ कार्य को पोपों के कुकृत्य की संज्ञा दी है, जो कहते हैं कि रोजड़ साधक आश्रम यज्ञ-हवन की बिक्री कर ही रहा है?
प्रश्न 4 : राजा के पास समय न होने से वह स्वयं न कर, अपने माता-पिता की सेवा अपने सेवकों से करवाता है। महर्षि दयानंद जी ने ‘‘सत्यार्थ प्रकाश” छठे समुल्लास में इस विषय में लिखा है। मनुस्मृति (7-78) के श्लोक ‘‘पुरोहितं प्रकुर्वीत वृणुयादेव चत्र्विज: । तेऽस्य गृह्यणि कर्माणि कुर्युर्वैतानिकानि च।।” अर्थात् पुरोहित और ऋत्विज् का स्वीकार इसलिए करें कि वे अग्निहोत्र और पक्षेष्टि आदि सब राजघर के कर्म किया करें, और आप राजा सर्वदा राजकार्य में रहें अर्थात् यही राजा का सन्ध्योपासनादि कर्म है, जो रात-दिन राजकार्य में प्रवृत्त रहना और कोई राजकाम बिगड़ने न देना।
राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लक्ष्मण जी द्वारा रचित महर्षि दयानन्द सरस्वती के सम्पूर्ण जीवन-चरित्र का सम्पादन और अनुवाद किया है। इसके भाग 2 के पृष्ठ-579 पर जिज्ञासु जी खुद महर्षि दयानन्द के राजा को यज्ञ स्वयं करने नहीं, बल्कि दूसरों से करवाने के उपदेश को इस तरह से लिख रहे हैं :-
‘‘भ्रमण करके लौटें तो जिस राजप्रसाद में सारा दिन बिताएं, वहां घृत आदि से हवन करवाएँ।”
लेकिन जिज्ञासु जी ने स्वयं की लिखी इस बात को छिपा लिया। क्या इससे पता नहीं चलता है कि उनका हृदय कितना पवित्र है? अन्यथा क्या वे स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा राजा को दिया गया दिनचर्या का उपदेश कभी छुपाते? हाँ, वे कभी नहीं छुपाते कि महर्षि ने राजा को स्वयं हवन करने का नहीं बल्कि करवाने का उपदेश दिया है। क्या जिज्ञासु जी का यह आचरण उनकी स्मृति-ह्रास का प्रतीक नहीं है? या उनके हृदय में वानप्रस्थ साधक आश्रम के प्रति द्वेष है, इसलिए वे इस संस्था की छवि खराब करना चाहते हैं?
विदेश में रहने वाला पुत्र तो गांव में रहने वाले अपने माता-पिता के लिए धन भेजकर उनके वस्त्र, आवास, भोजन, नौकर की व्यवस्था करता है। इस स्थिति में, क्या जिज्ञासु जी के मत में वह पितृयज्ञ नहीं माना जाएगा क्योंकि पुत्र ने स्वयं नहीं किया बल्कि पैसे देकर सेवकों से करवाया है?
प्रश्न 5 : मीमांसा दर्शन (अध्याय-6 पाद-1 सूत्र-19-21) में यह भी प्रश्न किया है कि स्वर्गफल, पुण्य केवल यजमान को मिलता है या यजमान की पत्नी को भी? उत्तर दिया कि दोनों को मिलता है? लोक में भी ऐसा ही होता है, जब पत्नी का त्याग करने पर पति का आधा वेतन पत्नी के खाते में चला जाता है। कर्म न करने पर भी सहभागिता के कारण हमें फल मिलता है। क्या जिज्ञासु जी के पास इस बात का कोई प्रमाण है कि कर्म न करने पर भी यानी कर्ता न होने पर भी सहभागी होने का फल नहीं मिलता है? आपने लिखा है कि पाप-पुण्य का भागीदार कोई नहीं होता। मैं जानना चाहता हूँ कि पाप-पुण्य मिलकर (सामूहिक) किए हों तो मिलकर किए पाप-पुण्य का भागीदार होता है या नहीं?
प्रश्न 6 : महर्षि पतंजलि योग सूत्र 2/34 (वितर्का हिंसादय: कृतकारितानुमोदिता……) में कहते हैं कि अहिंसा, सत्य आदि के विरोधी हिंसा आदि कर्म स्वयं भी किए गए होते हैं, करवाए हुए भी और अनुमोदन-समर्थन किए हुए भी। और इन तीनों तरह के कर्मों के फल मिलते हैं। लेकिन जिज्ञासु जी, दूसरों से करवाए गए यज्ञ आदि कर्मों का फल, करवाने वाले को प्राप्त होना नहीं मानते । वे सिर्फ स्वयं के द्वारा किए कर्मों का फल ही मिलना मानते हैं। आप पाठक मित्र कृपया बताइए कि जिज्ञासु जी और पतंजलि मुनि, इन दो में से, किसकी मान्यता को सही मानें?
प्रश्न 7 : महर्षि मनु श्लोक 5-51 (अनुमन्ता विशसिता निहन्ता…..) में कहते हैं कि 1. प्राणी को मारने की आज्ञा देने वाला, 2. मांस को काटने वाला, 3. प्राणी को मारने वाला, 4. हत्या के लिए खरीदने वाला, 5. बेचने वाला, 6. पकाने वाला, 7. परोसने वाला और, 8. खाने वाला, ये सब के सब पापी होते हैं।
महर्षि मनु की इस मान्यता के विपरीत, प्राणी को मारने वाला कर्म तो जिज्ञासु जी की फल देने वाले कर्म की परिभाषा में आता है लेकिन मारने की आज्ञा देने वाला कर्म जिज्ञासु जी की परिभाषा में नहीं आता। वे तो आहुति देने वाले को ही फल की प्राप्ति मानते हैं। लेकिन जिसने आहुति देने की व्यवस्था की है, उसे फल की प्राप्ति नहीं मानते हैं। कृपया बताइए, मनु जी के सिद्धांत को सही मानें या जिज्ञासु जी की मनमानी विचारधारा को?
प्रश्न 8 : धार्मिक आयोजनों में भण्डारा, ऋषि-लंगर की व्यवस्था की जाती है। जिज्ञासु जी के मत के अनुसार भोजन के दान का पुण्य तो पैसे लेकर भोजन बनाने वाले पाचक और परोसने वाले को मिलेगा, न कि धनदाता को?
परोपकारणी सभा में ‘‘अतिथि यज्ञ के होता” नामक प्रकल्प में, बाहर के लोग परोपकारणी सभा को अतिथि यज्ञ के लिए दान देते हैं। इस धन का प्रयोग परोपकारिणी सभा खुद के अतिथि सत्कार के लिए करती है। जिज्ञासु जी के सिद्धांतानुसार पुण्य तो परोपकारिणी को मिलता होगा, दानदाता तो बेचारे ठगे जाते होंगे? गोशाला, पक्षी-घर को गुड, अनाज के लिए पैसे (दान) देने वाले भी जिज्ञासु जी के मत में ठगे जाते होंगे?
कुआ खुदवाना, प्याऊ चलवाना, गुरुकुल निर्माण, धर्मार्थ भूमि के लिए धन देना, धर्मशाला बनवाना, ये ऐसे कार्य हैं, जिनका निर्माण मजदूर करते हैं, और दूसरे इन्हें चलाते हैं, लेकिन जिज्ञासु जी के सिद्धान्त को देखें तो फिर पुण्य के भागी तो वे दानी कतई नहीं होते हैं, जिनके पैसे से यह काम हुआ है। लेकिन क्या वास्तव में यह सत्य है?
दूसरा यज्ञ नहीं करवा सकता, और करवाएगा तो उसे कोई पुण्य नहीं मिलेगा, क्या इस बात का कोई सीधा-सीधा शास्त्रीय प्रमाण जिज्ञासु जी के पास है? यदि है तो उसके संदर्भ सहित आलोचना करनी थी। इस स्थिति में वानप्रस्थ साधक आश्रम को सधन्यवाद गलती सुधारना पड़ता।
प्रश्न 9 : जिज्ञासु जी लिखते हैं कि कर्म का फल कर्ता को ही मिलेगा। हम जिज्ञासु जी से जानना चाहते हैं कि आहुति डालना एक कर्म है, यह तो आप मानते हैं। लेकिन आहुति डालने की सामग्री और आहुति डालने वाले पुरोहित के लिए दान देना, क्या कर्म नहीं है? अगर कर्म है तो क्या उस कर्म का फल नहीं मिलेगा?
एक व्यक्ति ने कुछ रुपए वानप्रस्थ साधक आश्रम को यज्ञ करने के लिए दान में दिए। आश्रम ने उतने मूल्य की हवन सामग्री, औषधि, घी, सुगंधी आदि का प्रयोग किया। क्या उससे पर्यावरण की शुद्धि, कीटाणुनाश और प्रदूषण में कमी नहीं आई होगी? क्या आसपास सुगंधी फैलने और पुष्टिकारक वातावरण बनने से मनुष्य, पशु-पक्षी, औषधि आदि की पुष्टि नहीं हुई होगी? क्या जल आदि की वृष्टि में सहयोग नहीं मिला होगा? अब इस यज्ञ कर्म को कर यह लाभ उत्पन्न करने वाला तो वानप्रस्थ आश्रम है लेकिन यज्ञ का खर्चा देने वाला मेरे जैसा गृहस्थी व्यक्ति है तो क्या तब भी मैं एक कर्ता नहीं हुआ? कर्म का फल कर्ता को मिलता है, यह आपका कहना है। मेरे द्वारा खर्च पैसे से जो भला हुआ, क्या उसका मुझे कोई पुण्य नहीं मिलेगा? यदि थोड़ा भी पुण्य मिल रहा है तो फिर क्या जिज्ञासु जी की यह मान्यता सही है कि मुझे पुण्य नहीं मिलेगा? एक किलो घी और सामग्री अग्नि में डालने से जो पुण्य एक को मिलता है, वह तो दूसरे को भी क्यों नहीं मिलेगा, वह चाहे घर में यज्ञ करे या गुरुकुल में करवाए?
समाज में एक व्यक्ति हत्या करता है, और दूसरा करवाता है। जो हत्या करता, उसे भी सजा मिलती और जो करवाता है, उसे भी। इसी प्रकार जो यज्ञ कर रहा है, उसे भी पुण्य मिलता है और जो यज्ञ की व्यवस्था दूसरे से करवा रहा है, उसे भी पुण्य क्यों नहीं मिलेगा?


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