Sunday, August 21, 2016

● आर्य समाज के महान् वैज्ञानिक संन्यासी (डॉ०) स्वामी सत्यप्रकाश जी सरस्वती का सत्योपदेश…...

● आर्य समाज के महान् वैज्ञानिक संन्यासी (डॉ०) स्वामी सत्यप्रकाश जी सरस्वती का सत्योपदेश… ●
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नारों का लगाना व जयजयकार करना -

● आर्य जनता के लिए शोभनीय नहीं ।

● शिष्टाचार का प्रतीक नहीं ।

● हमारी आर्ष परम्परा के विरुद्ध और अर्थहीन है ।

● यह नारा-बाजी हमने हिन्दुओं से सीखी है ।

(सन्दर्भ ग्रन्थः “आध्यात्म और आस्तिकता”, पृष्ठ १३-१४, संकलनः भावेश मेरजा)

स्वामी सत्यप्रकाश जी सरस्वती ने अपने एक व्याख्यान में आर्य जनता को उपदेश करते हुए कहा –

“आर्यसमाज में इस समय जय-जयकार के नारों की संख्या बढ़ती जा रही है - वैदिक धर्म की जय, गुरुवर जिरजानन्द की जय, ऋषि दयानन्द की जय, मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जय, भगवान योगीराज कृष्ण की जय, गो माता की जय । ये नारें हिन्दुओं से आर्य समाजियों ने सीखे हैं । भरी सभाओं में किसी किनारे से आपको सहसा बम के गोले की तरह एक आवाज छूटते सूनाई पड़ेगी - जो बोले सो अभय ! फिर तो सभा में नारों का तांता लग जायेगा । लोगों का ख्याल है कि इससे जनता के जोश का प्रदर्शन होता है । किन्तु इसमें जोश तो शायद हो, होश नहीं । आतिशबाजी के इन पटाखों का फूटना – अमर शहीद लेखराम की जय, स्वामी श्रद्धानन्द की जय – शिष्टाचार का प्रतीक नहीं है ।

मेरे एक आत्मीय संन्यासी दक्षिण प्रदेश के हैं । वे नारे लगाने में इतने सिद्धहस्त हैं कि मैं प्यार से उनको ‘नारा-स्वामी’ ही कहता हूं । रण के मैदान में भी जयकार के नारे अब समाप्त हो गए हैं । समय-असमय इन नारों का लगाना आर्य जनता के लिए शोभनीय नहीं है ।

मुझे नैरोबी एयरोड्रोम की बात याद है । भारतीयों का एक समूह आर्य सम्मेलन में भाग लेने एयरोड्रोम पर उतरा । मैं उनके स्वागत के लिए गया था । हम लोगों के मिलते ही भारतीय आर्य दल नारे लगाने को जैसे ही उद्यत हुआ, मैंने उन्हें नारे लगाने से रोका । मैंने कहा राष्ट्रपति केन्याटा की मृत्यु अभी हुई है । नारे मत लगाना । लोग मेरी बात मान गए । कहीं जोर-जोर के नारे लगने लगते, तो पुलिस समझती कि कोई हंगामा हो गया है । पकड़-धकड़ आरम्भ हो जाती । विदेशों में आपके ये नारे पागलपन ही तो माने जाएंगे ।

एक पौराणिक कथावाचक थे । कथा के बीच में वे जोर से नारे लगवाने लगते थे – ‘बोल, सियावर रामचन्द्र की जय’, इत्यादि । मैंने पूछा कि ये नारें क्यों लगाये जाते हैं, तो मुझे जो उत्तर मिला, उससे मुझे कुछ सन्तोष हुआ । कथा के बीच में कुछ लोग सुनते-सुनते ऊंघने लगते हैं । नारों की आवाज सुनकर वे जग पड़ते हैं । नारे लगाने का यह औचित्य तो कुछ समझ में आता है, अन्यथा सभ्य समाज में ये नारें हमारी अशिष्टता के सूचक ही माने जायेंगे । पुराने समय जो हंगामें होते थे, आपस के कलहपूर्ण जो हुल्लड़ होते थे, उनके ही ये जोश दिलाने वाले प्रतीक हैं ।

आशा है, आप मेरी यह बात याद रक्खेंगे । वैदिक प्रथा यह रही है कि परमात्मा और परमात्म-चेतनता से सचेष्ट होकर जो प्राकृतिक विभूतियां (विश्वे देवाः) हमारे लिए हितकर हैं, उनके लिए हम आदर की भावना से ‘स्वाहा’ शब्द का प्रयोग करते हैं । वैदिक धर्म की जय, आर्य समाज की जय, या किसी ऐतिहासिक मृत पुरुष के नाम के जयजयकार हमारी आर्ष परम्परा के विरुद्ध और अर्थहीन है । हिन्दुओं से हमने यह नारा-बाजी सीखी है । शायद आप मेरी इस बात को ध्यान रक्खें, और व्याख्यानों के मध्य या अन्त में नारे लगाना बन्द कर दें – इस भरोसे पर मैं आपसे यह बात बड़े प्यार से कह रहा हूं । वैसे तो आप मेरी बात मानेंगे नहीं, क्योंकि मैं जानता हूं कि जो प्रथा एक बार चल पड़ी, वह बन्द नहीं होती । नारों की वर्तमान सूची घटा-बढ़ा तो सकते हैं, पर आखिर आर्यसमाजी के भीतर तो अब भी रूढ़िवादी हिन्दू का रुधिर बह रहा है । किसी भी देवता को आप कम नहीं कर सकते । पौराणिक देवताओं की सूची में दो-चार आप बढ़ा दीजिये – किसी को आपत्ति न होगी ।”


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