इस मन्त्र में गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का ज्ञान दिया गया है, गृहस्थ आश्रम को चारों आश्रमों में उत्तम बताया है, ईश्वर आज्ञा देते है की मनुष्य को विज्ञान, धर्म, विद्या और पुरुषार्थ से जीवन के सुखों की पूर्ति के लिए प्रयास करें
धन प्राप्ति के लिए विज्ञान का उपयोग करें परन्तु अधर्म ना करें धन प्राप्ति के लिये धर्म और व्यवसाय को जोड़े नहीं, आजकल लोगों ने धर्म को ही व्यवसाय बना लिया है, नाम तो करते है की धर्म का कार्य कर रहे है, परन्तु धर्म की औट लेकर उदर पूर्ति के लिए धन प्राप्ति करने में लगे रहते है, यह अधर्म की श्रेणी में आता है
धर्म के पथ पर चलते हुए गृहस्थ आश्रम का पालन करें
अपने बच्चों को वेदों से अवश्य अवगत कराये, आज की युवा पीढ़ी को वेदों की और आकर्षित करवाए यही समय की जरुरत है, अन्यथा ये पाश्चात्य संस्कृति इस देश की संस्कृति को भ्रष्ट कर देगी नष्ट कर देगी
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यजुर्वेद ३-४३ (3-43)
उप॑हूता इ॒ह गाव॒ उप॑हूता अजा॒वयः॑ । अथो॒ अन्न॑स्य की॒लाल॒ उप॑हूतो गृ॒हेषु॑ नः । क्षेमा॑य वः॒ शान्त्यै॒ प्र प॑द्ये शि॒व श॒ग्म श॒म्योः श॒म्योः ॥३-४३॥
भावार्थ:- गृहस्थों को योग्य है कि ईश्वर की उपासना वा उसकी आज्ञा के पालन से गौ, हाथी, घोड़े आदि पशु तथा खाने-पीने योग्य स्वादु भक्ष्य पदार्थों का संग्रह कर अपनी वा औरों की रक्षा करके विज्ञान, धर्म, विघया और पुरुषार्थ से इस लोक वा परलोक के सुखों को सिद्ध करें, किसी भी पुरूष को आलस्य में नहीं रहना चाहिये,
किन्तु सब मनुष्य पुरुषार्थ वाले होकर धर्म से चक्रवर्ती राज्य आदि धनों को संग्रह कर उनकी अच्छे प्रकार रक्षा करके उत्तम उत्तम सुखों को प्राप्त हों, इससे अन्यथा मनुष्यों को न वर्तना चाहिये, क्योंकि अन्यथा वर्तने वालों को सुख कभी नहीं होता।।
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