Tuesday, September 22, 2015

श्रावण शुक्ल पंचमी वि.सं २०७२ 19 अगस्त 2015 😶 “शुभ एवं बलवान् संकल्प! ” 🌞 🔥🔥ओ३म्...

श्रावण शुक्ल पंचमी वि.सं २०७२ 19 अगस्त 2015 😶 “शुभ एवं बलवान् संकल्प! ” 🌞 🔥🔥ओ३म् आकूतिं देवी सुभगां पुरो दधे चित्तस्य माता सुहवा नो अस्तु । 🔥🔥 🍃🍂 यामाशामेमि केवली सा मे अस्तु विदेयमेनां मनसि प्रविष्टाम् ।। 🍂🍃 अथर्व० १९ । ४ । २ ऋषि:- अथर्वाग्ङिरा: ।। देवता- अग्नि ।। छन्द:- जगती ।। शब्दार्थ- उत्तम ऐष्वर्य-विषयक अभिप्राय देवता को मैं सामने रखता हूँ, वह चित्तभाग की माता, निर्मात्री, बनानेवाली, मेरे लिए सुगमता से बुलाने योग्य होवे। मैं जिस आशा को करूँ, जिस दिशा में जाऊँ वही केवल शुद्धरूप में मेरे सामने हो। अन्त:करण में घुसी हुई इस अभिप्राय देवता को मैं सदा जान सकूँ, पा सकूँ। विनय:- बहुत बार मुझे स्वयं ज्ञात नहीं होता कि मेरा अभिप्राय क्या है। मैं अपने आंतरिक अभिप्राय को स्पष्ट लाने में समर्थ नहीं होता। असत्य भाषण, असत्य चिन्तन करते, नाना भयों या रागों के वशीभूत होते हुए मेरा मानसिक व्यापार इतना कलुषित और कृत्रिम हो गया है कि मैं उसकी गड़बड़ में अपने वास्तविक अभिप्राय को ही खो देता हूँ। अपने सच्चे आशय को दूसरों से छिपाते-छिपाते, वह मुझसे भी छिप जाता है, परन्तु मैं अब इस आत्म-वञ्चना की अवस्था को त्यागता हूँ और आज से सदा अपनी आकृति (अभिप्राय) को स्पष्ट सामने लाकर रखूंगा। मन की इच्छाएँ, अभिलाषाएँ जब बुरी होती हैं, दुर्भगा तथा आसुरी होती हैं, तभी हम प्रायः इन्हें छिपाते हैं। जब ये सुभगा और देवी होती हैं, जब उत्तम ऐश्वर्यों की इच्छा या सबके भले की कल्याणी इच्छा होती है तब भी यदि हम इन्हें छिपाते हैं तो केवल निर्बलता के कारण या किन्हीं झूठे भय व लज्जा के कारण ही ऐसा करते हैं, अतः जब मेरी आकूति सुभगा और देवी है तो मैं क्यों डरूँ? क्यों छिपूँ? मैं तो अब इसे सामने स्पष्ट रखता हूँ। मैं आज से अपने जीवन को इतना सच्चा बनाता हूँ, अपने मानसिक क्षेत्र को सत्यज्ञान के प्रकाश से ऐसा प्रकाशित रखता हूँ कि अब मैं मन में घुसी हुई अपनी इस अभिप्राय देवता को हे प्रभो! जब चाहूँ तब तुरन्त जान सकूँ, पा सकूँ, निकाल सकूँ। मन (अन्त:करण) का जो निचला ‘चित्त’ नामक भाग है जहाँ कि विचार, अभिप्राय सुप्त रूप में पड़े रहते हैं या यूँ कहना चाहिए कि जो चित्त इनका बना हुआ है (जिस चित्त की माता अभिप्राय है) उस स्थान से जब मैं चाहूँ तभी अपने अभिप्राय को पुकारकर ला सकूँ। आकूति मेरे लिए सदा सुहावा हो, सुगमता से पुकारने योग्य हो। जब आवश्यकता हो तब मैं उसे पुकारकर वैखरी वाणी के रूप में लाकर खड़ा कर सकूँ। हे प्रभो! अब मेरे मनोराज्य की सब अव्यवस्था, गड़बड़ दूर कर दो। मैं अब जिस आशा व इच्छा को लेकर चलूँ, तब वही अकेली आशा मेरे सामने रहे, शुद्ध रूप में वही प्रकाशमान रहे;और सब गौण विचार गड़बड़ न मचाते हुए यथास्थान पीछे रहें। यदि ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जाएगी तो मेरी सब आकूतियाँ संकल्पशक्ति बन जाएँगी और वे पूर्ण व सफल हुआ करेंगी। 🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂 ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩 ……………..ऊँचा रहे 🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚


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