Saturday, September 26, 2015

ओ३म । 🌹 वैदिक विनय–37 ...

ओ३म । 🌹 वैदिक विनय–37 🌹 —————————————— 👉ऋग्वेद:10/57/6; ऋषि: बन्धु: सुबन्धु आदय: । देवता विश्वे देवा: । छंद: निचरद गायत्री । ——————————————— 👉हिंदी अर्थ,“ हे परमेस्वर! सोम को अपने शरीरों में मन शक्ति से धारण किये हुए हम लोग तुंहारे व्रत में है। तुमहारे व्रत का पालन करते है और प्रजा सहित हम लोग तुम्हरी सेवा करते रहें।” ———————————————- 👉सरल रहस्य विनय:- लेखक:- राजिंदर वैदिक। 👏 इस मन्त्र का ऋषि आप सब को बता रहा है की आपको अपना जीवन सहज, सरल तरीके से किस प्रकार जीना चाहिए। मनुष्य को चाहिए की परमेस्वर की समीपता पाने के लिए अपने शरीर के अंदर उपासना योग यज्ञ का अभ्यास करके मस्तिस्क के आकाश में “सोम” को धारण करना चाहिए। यह सोम क्या है? और इसको किस प्रकार मस्तिस्क के आकाश में धारण करना चाहिए।। मनुष्य जो भी खाता-पित है; अंत में वह सप्तम सार पदार्थ (वीर्य) जल- रस-समूह का रूप लेकर शरीर में रहता है। उपासना योग यज्ञ अभ्यास का साधक अपने मस्तिस्क की।ध्यान एकाग्रता नीचे पृथिवी तत्व (गुदा द्वार से थोडा ऊपर) पर लगाता है; फिर पेड़ू व् नाभि में। इस प्रकार नीचे-ऊपर वह विलोडन यहाँ पर करता रहता है। इस किर्या के परिणामस्वरूप यहाँ इस पदार्थ से ऊर्जा-शक्ति कण बनने लगते है; जो यहाँ नाभि से नीचे रहने वाले “अपान प्राण” के साथ मिल कर रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ मार्ग से होते हुए मस्तिस्क केआकाश में पहुँच जाते है और यहाँ पर रहने वाले “प्राण” और नीचे से आने वाले “अपान प्राण” के आपस में टकराने से यहाँ विधुत चमकती है; जैसे बाहर बादलो में बिजुली चमकती है। ऐसे ही मस्तिस्क के आकाश में ये ऊर्जा-शक्ति-कण बिजुली की तरह; चमकीले सितारों की तरह चमकते है। ये ही “सोम-रस” का पीना है। ये इतने शीतल है की सारे शरीर को रोमांचित, आनन्दित व् रुई की तरह हल्का कर देते है। यह सब मन-शक्ति का उपासना योग यज्ञ अभ्यास में प्रयोग करने से ही सम्भव होता है इस किर्या से साधक की साधारण बुद्धि विकास होकर “सरस्वती, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, विवेक आदि का नाम ले लेती है और सूक्ष्म ज्ञान, आत्मा-परमात्मा का ज्ञान धारण करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है और अनेक प्रकार की शक्तियाँ मिल जाती है ।। फिर भी ऋषि इस उपासना योग यज्ञ अभ्यास के व्रत से हटता नही है।। बिना नागा किये दिन- रात में कई-कई बार करता है और अपने शरीर रूपी राज्य की प्रजा (अंग-प्रत्यंग, इन्द्रिया आदि) से आप परमेस्वर की सेवा करता रहता है।। हे परमेस्वर! उपासना योग यज्ञ अभ्यास में "सोम” को धारण करते हुए भी हम आपके व्रत में रहे; नियमो में रहे। हमारा शरीर, इन्द्रिया, प्राण, मन, बुद्धि आदि सब अंग-प्रत्यंग उपासना योग यज्ञ अभ्यास द्वारा आप में रमण करते रहे; गोता लगाते रहे।। शांत रहे; आनन्दित रहें। ——-राजिंदर वैदिक । 👏


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