Saturday, September 26, 2015

Rajinder Kumar Vedic महाभारत : शान्तिपर्वणि : मोक्षधर्मपर्व:दो सौ उन्यासीवा अध्याय : संग्रह कर्ता:...

Rajinder Kumar Vedic महाभारत : शान्तिपर्वणि : मोक्षधर्मपर्व:दो सौ उन्यासीवा अध्याय : संग्रह कर्ता: राजिंदर वैदिक (इस वैदिक ज्ञान का फैलाव करो) ——————————— यह जीवात्मा तमोमय अज्ञान से आवर्त और कर्मफल से रंजित हो व्ही वर्ण ग्रहण कर अर्थार्त विभिन्न शरीरो के धर्मो को स्वीकार करके समस्त प्राणियों के शरीरो में घूमता रहता है. (9 -10 ) जब जीव तत्वज्ञान द्वारा अज्ञानजनित अंधकार को दूर कर देता है, तब उसके ह्रदय में सनातन ब्रह्म प्रकाशित हो जाता है. (11 ) ऋषि-मुनि कहते है की ब्रह्म की प्राप्ति किसी किर्यात्म्क यंत्र से साध्य नही है. इसके लिए तो देवताओ सहित सम्पूर्ण जगत की और तुमको उन पुरषो की उपासना करनी चाहिए, जो जीवन्मुक्त है, अतएवं मै महृषीयो के समुदाय को नमस्कार करता हु. (12 ) पूर्वकाल की बात है की वत्रासुर को ऐस्वर्य भृष्ट हुआ देख शुक्राचार्य ने उससे पूछा,“ दानवराज”! तुम्हे देवताओ ने पराजित कर दिया है तो भी आजकल तुम्हारे चित्त मै किसी प्रकार की व्यथा नही है. इसका क्या कारण है? वत्रासुर ने कहा,“ ब्रह्मण! मैने सत्य और तप के प्रभाव से जीवो के आवागमन का रहस्य निश्चित रूप से जान लिया है, इसलिए मै उसके विषय मै हर्ष और शोक नही करता हु. (16 ) काल से प्रेरित हुए जीव अपने पापकर्मों के फलस्वरूप विवश होकर नरक मै डूबते है और पुण्य के फल से वे सबके सब स्वर्गलोग मै जाकर वहाँ आनंद भोगते है. ऐसा मनीषी पुरषो का कथन है. (17 ) इस प्रकार स्वर्ग अथवा नरक मै कर्मफल भोग द्वारा निश्चित समय व्यतीत करके भोगने से बचे हुए कर्म सहित काल की प्रेरणा से वे बारम्बार इस संसार में जन्म लेते रहते है. (18 ) इस प्रकार मैने सभी जीवो को जन्म-मरण के चककर मै पड़ा हुआ देखा है. शास्त्रो का भी ऐसा सिद्धांत है की "जैसा कर्म होता है, वैसा ही फल मिलता है. (20 ) प्राणी पहले ही सुख-दुःख तथा प्रिय और अप्रिय विषयो से विचरण करके कर्म के अनुसार मनुष्य योनि और देव योनि मै जाते है. (21 ) समस्त जीव-जगत विधाता से ही परिचालित हो सुख-दुःख पाता यही और समस्त प्राणी सदा चले हुए मार्ग पर ही चलते है. (२२) वत्रासुर ने कहा, मैने तपस्या के प्रभाव से जो ऐस्वर्य प्राप्त किया था, वह मेरे अपने ही कर्मो से नष्ट हो गया. तथापि मै धैर्य धारण करके उसके लिए शोक नही करता हु.(२३) –क्रमश. राजिंदर वैदिक


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