Sunday, November 22, 2015

[11/21, 9:27 AM] ‪+91 94263 38609‬: ६ मार्गशीर्ष 21 नवंबर 2015 😶 “ हे मेरे...

[11/21, 9:27 AM] ‪+91 94263 38609‬: ६ मार्गशीर्ष 21 नवंबर 2015

😶 “ हे मेरे आत्मन् ! ” 🌞

🔥🔥 ओ३म् पश्वा न तायुं गुहा चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तम् । 🔥🔥
🍃🍂 सजोषा धीरा: पदैरनु ग्मत्रुप त्वा सीदन् विश्वे यजत्रा: ।। 🍂🍃

ऋक्० १ । ६५ । १

ऋषि:- पराशर: शाक्त्य ।। देवता- अग्नि: ।। छन्द:- द्विपदाविराट् ।।

शब्दार्थ- हे अग्ने!
पशु के, दर्शन-शक्ति के साथ चोर की तरह गुहा में, हृदय-गुहा में, गये हुए और वहाँ अत्र व नमस्कार से युक्त होते हुए तथा उस अत्र व नमस्कार को धारण करते हुए तुझको मिलकर प्रीति तथा सेवन करनेवाले धैर्यशील ज्ञानी लोग पदचिन्हों, प्रीति-साधनों द्वारा पीछा करते हैं, खोजते हैं और खोजकर वे सब यजनशील लोग तुझे, तेरी उपासना करते हैं।

विनय:- मैं तुझे कैसे ढूँढू? हे मेरे अग्ने! आत्मन्! तू मुझसे छिपकर न जाने कहाँ जा बैठा है, किस गहन गुफा में जा छिपा है? जैसे, जब कोई चोर किसी के पशु को चुरा ले जाता है और कहीं पहाड़ की गुफा में जा छिपता है तो पशुवाला अपने पशु को घर पर न पाकर ढूँढ मचाने लगता है, उसी तरह जबसे मुझे पता लगा है कि मेरे ‘पशु’-मेरी दर्शन-शक्ति खो गई है तब से मैं हे आत्मन्! तुझे ढूँढने लगा हूँ।
कहते हैं कि तू मेरे ही अन्दर मेरी 'हृदय की’ कहानेवाली किसी गम्भीर गुफा में छिपा पड़ा है; कहते हैं कि तू वहाँ ही अपने अत्र को, नमस्कार को पाता है और उसे स्वीकार भी करता रहता है; पर फिर भी तू मुझे दर्शन नहीं देता, मिलता नहीं। जो धीर पुरुष होते हैं, जो लगातार यत्न करते जानेवाले ज्ञानी पुरुष होते हैं तथा जो परस्पर मिलकर प्रीति और सेवन करनेवाले कर्मशील होते हैं, वे तुझे पदों द्वारा, तेरे पदचिन्हों द्वारा खोजने लग जाते हैं। प्रतिदिन सुषुप्ति, संध्या, मृत्यु की घटनाओं में जो तेरे पदचिन्ह चमकते है , इन्द्रियों में जो तेरे पदचिन्ह पड़े हैं उनसे तेरा अनुमान करते हैं। इस प्रकार खोजते-खोजते अन्त में ये यजन के अभिलाषी तुझे पा लेते हैं और ये यजनशील लोग मिलकर तेरी उपासना करने लगते हैं। क्या मैं भी कभी, हे मेरे आत्मन्! तुझे पाकर, 'यजत्र’ बनकर तेरी उपासना में बैठ सकूँगा?

🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂
ओ३म् का झंडा 🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
……………..ऊँचा रहे

🐚🐚🐚 वैदिक विनय से 🐚🐚🐚
[11/21, 9:20 PM] ‪+91 89545 72491‬: 🌷🌷🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷🌷

भूपेश आर्य

मनुस्मृति-

प्रत्यग्निं प्रतिसूर्यं च प्रतिसोमोदकद्विजान्।
प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ।। ४/५२
अग्नि,सूर्य,चन्द्र,जल,ब्राह्मण,आदि गौ और वायु इनके सम्मुख इनके सम्मुख मूत्र करने वाले की बुद्धि नष्ट हो जाती है।

लोष्ठमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः ।
स विनाशं व्रजत्याशु सूचकोअशुचिरेव च ।। ४/७१ ।।
ढेले का मसलने वाला,तृण का छेदने वाला,और नखों के चबाने वाला मनुष्य शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और चुगलखोर तथा अपवित्र भी।

न संहताभ्यां वाणिभ्यां कण्डयेदात्मनः शिरः ।
न स्पृशेच्चैतदुच्छिष्टो न च स्नायाद्विना ततः ।। ४/८२।।
दोनों हाथों से एक साथ अपना सिर न खुजावे और झूठे हाथों से सिर को न छूवे और बिना सिर पर पानी डाले स्नान न करे।

वैरिणं नोपसेवेत सहायं चैव वैरिणः।
अधार्मिकं तस्करं च परस्यैव च योषिताम् ।। ४/१३३ ।।
न हीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते ।
यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ।।४/१३४।।
शत्रु और उसके सहायक से और अधर्मी,चोर और पराई स्त्री से मेल न रक्खे।।
इस प्रकार का आयु क्षय(घटाने वाला)करने वाला संसार में कोई कर्म नहीं है,जैसा (मनुष्य की आयु घटाने वाला)दूसरे की स्त्री का सेवन है।

नात्मानमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः ।
आमृत्योः श्रीयमन्विच्छेन्नैनां मन्येतं दुर्लभाम् ।। ४/१३७ ।।
यत्न करने से द्रव्य न मिले तो भी अपने को अभागा कहकर अपना अपमान न करे,किन्तु मरने तक सम्पत्ति के लिए यत्न करे;इसको दुर्लभ न जाने।।

दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः ।
दुःखभागी च सततं व्याधितोअल्पायुरेव च ।।४/१५७ ।।
दुष्ट आचरण करने वाला पुरुष लोक मे निन्दित,दुःख का भागी,निरन्तर रोगी रहता तथा अल्पायु भी होता है।

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यत्नेन वर्जयेत् ।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः ।। ४/१५९ ।।
सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् ।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ।। ४/१६० ।।
जो जो कर्म दूसरे के आधीन हैं उन उनको यत्न से छोड़ देवे और जो जो अपने आधीन है उनको यत्न से करे।।
दूसरे के आधीन होना ही सम्पूर्ण दुःख है और स्वाधीनता ही सम्पूर्ण सुख है।यह सुख दुःख का स़क्षिप्त लक्षण जानें।
[11/22, 7:31 AM] ‪+91 89545 72491‬: 🌷🌷🌷🌷ओ३म्🌷🌷🌷🌷

भूपेश आर्य

🌻वाचक प्रणव अर्थात् ओ३म्🌻

ओ३म् नाम अक्षर अविनाशी।
घट घट व्यापक आनन्द राशि।।
सर्व दुःखों का ओषध नाम।
ओ३म् नाम जप सुबह और शाम।।
ओ३म् नाम आनन्द प्रदाता।
बन्धु सखा भ्राता पितु माता।।
सच्चा मित्र है केवल नाम।
ओ३म् नाम मुक्ति का धाम।।
ओ३म् नाम सबसे बड़ा इससे बडा ना कोय।
जो इसका सिमरन करे शुद्ध आत्मा होय।।
ओ३म् नाम ह्रदय में धार।
जिसकी महिमा अपरम्पार।।
ऋद्धि सिद्धि का दाता ओ३म्।
विघ्न विनाशक त्राता ओ३म्।।
इसमें त्राटक खूब लगाओ।
मन वाछित फल आनन्द पाओ।।
अन्तर ज्ञान की ज्योति जगाओ।
पाप ताप सन्ताप मिटाओ।।
निर्मल मन में प्रकट हो,ज्योति निरन्तर ज्ञान।
निर्मल मन म़े उपजे,सकल ज्ञान विज्ञान।।
ओ३म् नाम से निर्मल ज्ञान।
ओ३म् नाम सबमें प्रधान।।
ओ३म् नाम निज नाम प्रभु का।
ओ३म् नाम है सबसे ऊंचा।।
ओ३म् नाम उपमा नहीं पावे।
ओ३म् नाम सुगुणी जन गावे।।
ओ३म् नाम जपना बिन पाप।
ओ३म् नाम हरे तीनों ताप।।
ओ३म् नाम अक्षर परम,ओ३म् नाम है ब्रह्म।
ओ३म् नाम के जाप से,छूटे भव-भय-भ्रम।।


ओ३म् हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
योअसावादित्ये पुरुषः सोअसावहम् ।ओ३म् खं ब्रह्म ।।( यजुर्वेद मंत्रः 40/17)
भावार्थ-सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! जो मैं यहां हूं वही अन्यत्र सूर्यादि लोक में हूं वही यहां हूं।सर्वत्र परिपछर्ण आकाश के तुल्य व्यापक मुझसे भिन्न कोई बडा नहीं।मैं ही सबसे बडा हूं।मेरे सुलक्षणों से युक्त पुत्र के तुल्य प्राणों से प्यारा मेरा निज नाम “ओ३म्” है।
जो मेरी प्रेम और सत्याचरण से शरण लेता है,अन्तर्यामी रुप से मैं उसकी अविद्या का नाश करके उसके आत्मा का प्रकाश करके शुभ गुण कर्म स्वभाव वाला कर सत्य स्वरुप का आवरण स्थिर कर योग से हुए विज्ञान को और सब दुःखों से अलग करके मोक्ष सुख को प्राप्त कराता हूं।
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