Monday, November 30, 2015

ॐ योगदर्शन सूत्र २ गतांक से आगे। बीते दिवस में सूत्र व्याख्या में ये स्पष्ट करने का यत्न किया कि...


योगदर्शन सूत्र २
गतांक से आगे।
बीते दिवस में सूत्र व्याख्या में ये स्पष्ट करने का यत्न किया कि चित्त एक अन्तःकरण है जो आत्मा के लिए सबसे निकटतम और पहला साधन है इसके विना आत्मा कुछ भी भोग नही सकता,ना कर्म कर सकता। भोग और मोक्ष दोनों को पाने में आत्मा का परम सहायक ये अवयव प्रकृति का हमारे लिए प्रथम और सर्वोतम वरदान है।
चित्त प्रधान मूल प्रकृति का सबसे प्रथम निर्माण,विकृति या कार्य है।
ये विषय सांख्य शास्त्र का है,क्यूंकि प्रकृति के निर्माण कार्य को समझाना उसका उद्देश्य है तथापि हमे स्वयं को समझने हेतु महर्षि कपिल के अनुग्रह की आवश्यकता मूल,प्रकृति,प्रधान,अव्यक्त,जगदम्बा आदि इसके अनेक नाम हैं,ये अनादी अर्थात् सदा से है और सदा रहेगी,सो इसे सत भी कहा जाता है;क्यूंकि इसकी सत्ता कभी नष्ट नही होती।
हाँ इसका सवरूप सदा परिवर्तित होता रहता है सो इसे परिवर्तनशील कहा जाता है।
इसका मूल स्वरूप क्या है?
प्रकृति समस्त दिखने और न दिखने वाले वाले विश्व का उपादान कारण अर्थात् rawmaterial है,सब कुछ इसी से बनता है सो इसे सकल जगत की योनि,गर्भ या माँ भी कहा जाता है।
वो rawmatiriel माने उपादान कारण है क्या?
सर्वप्रधान गुणवत्ता वाले भिन्न भिन्न ३ भान्त के संख्या की दृष्टि से अनंत परमाणु हैं;ये नवीन वैज्ञानिको द्वारा वर्णित परमाणु नहीं वे तो इन सबसे सूक्ष्मतम और इनका भी उपादान कारण माने rawmetariel हैं।
गुण से ही किसी वस्तु वा द्रव्य की योग्यता का ज्ञान होता है,समस्त जगत के द्रव्य उन ३ भान्त के परमाणुओं के अलग अलग अनुपात के मिश्रण से बनते है;अतः इन्हें अलग अलग गुणवत्ता के कारण वेद और ऋषियों ने उन्हें त्रिगुण कहा।
विषयांतर और अधिक विस्तार भय से उनका विशेष वर्णन अनापेक्षित है।
त्रिगुण जब किसी अन्य अवस्था को प्राप्त न होकर जब अपने रूप में शांत रूप से होते हैं तो उसे ही मूल प्रकृति प्रधान अव्यक्त आदि अनेक नामो से पुकारा जाता है। इन परमाणुओं की ऐसी शांत अवस्था १ क्षण मात्र के लिए महाप्रलय के समय होती है,पश्चात् फिर उनमे परिवर्तन आरम्भ हो जाता है।
सत्व रजस् तमस् इनके नाम हैं।
त्रिगुण या मूल प्रकृति एक ही हैं इनहे कोई अलग न समझे,सो थोडा आवश्यक विवरण मूल प्रकृति में जब प्रथम विकार अर्थात् मूल स्वरूप में परिवर्तन होता है तो सत्व रजस तमस के परमाणु भिन्न अनुपात में आपस मे मिलतें हैं,जिनमे सत्व के परमाणु सर्वाधिक होते हैं,उसमें थोड़े से परमाणु रजस् के और किंचित मात्र सबसे कम परमाणु तमस् के होते हैं तत समय प्रथम रचना होती है जो समष्टि(अखिल विश्व में एक साथ सार्वजनिक)रूप से होती है,जिसे महातत्व, महद आदि के नामो से जाना जाता है;इसे ही विश्वरूप ईश्वर का चित्त साधुजन कहते हैं;इसी से आगे की समस्त रचना होती हैं,इसमें समाविष्ट होने और प्रधानतः इसी का प्रयोग करने से ईश्वर के कार्य और सामर्थ्यय उजागर होतें है,अन्यथा जगत उसके बल से अंजान रहता सो विद्वत समाज इसे सबल ब्रह्म वा ईश्वर की संज्ञा से उसका गुणगान करने लगे।
विश्व ईश्वर का शरीर समझो और ब्रह्म उसकी आत्मा और महत्त को उसका चित्त समझ लो,ये समष्टि रचना हुयी।
जैसी रचना विधि ब्रह्मांड की है,वैसी पिंड अर्थात् शरीर की है।
पिंड और जीव से सम्बन्धित रचना को व्यष्टि कहते हैं;जो रचना समष्टि चित्त अर्थात् महत्त की हुयी,वही रचना तत समय व्यष्टि चित्त की हुयी जीवात्मा के भोग और कल्याण हेतु;इससे ये भी सिद्ध होता है कि जीवात्मा ईश्वर और मूल प्रकृति सदा से अनादी हैं और उनकी भिन्न भिन्न सत्ता है,ये बात और है के उनके गुण कर्म स्वभाव भिन्न भिन्न हैं।
हम ईश्वर के पुत्र के समान अवश्य हैं,परन्तु अवयव रूप से उसके अंश नहीं।
समष्टि चित्त का प्रयोग ईश्वर करता है और व्यष्टि चित्त का हम जीव।
विश्व–ईश्वर का शरीर
पिंड–हमारा शरीर
महत्त–ऐश्वर्याचित्त
चित्त–हमारा।
ये सृष्टि की प्रथम रचना हुयी,जिसका जिक्र हम चित्त के नाम से कर रहें है।
चित्त की निर्माण प्रक्रिया के विषय में संक्षेप से कहा,त्रुटी हुयी हो तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, और आशा करता हूँ विद्वान सुधार देंगे।
चित्त की अवस्थाओं के विषय में अब कहेंगे।।ॐ।।
क्रमशः


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