Sunday, November 1, 2015

ओ३म् भूपेश आर्य~8954572491 यदि मनुष्य परमपिता परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहता है (जो उसके जीवन का चिर...

ओ३म्
भूपेश आर्य~8954572491
यदि मनुष्य परमपिता परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहता है (जो उसके जीवन का चिर लक्ष्य है) और चाहता है प्रभु उस पर सुख की वर्षा करें तो यह परम आवश्यक है कि वह मांस खाना छोडकर सभी जीवों के साथ उचित व्यवहार करें।हम यह जो पक्ष उपस्थित कर रहे हैं तो वह केवल कल्पना प्रसूत नहीं अपितु आर्ष और आप्त प्रमाणों पर पूर्ण रुपेण आधारित है।
मनु महाराज इस संबंध में व्यवस्था करते हैं-
योअहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्म सुखेच्छया ।
स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित् सुखमेधते ।। मनु०५/४५
अर्थात् जो स्वार्थी मनुष्य अपने सुख की इच्छा से दूसरों को कष्ट न पहुंचाने वाले प्राणियों की हत्या करता है वह इस जीवन में और परलोक में कहीं भी सुखी नहीं यह सकता।
कारण स्पष्ट है ।कर्मफल दाता भगवान की दृष्टि में वह दण्डनीय है तब उसके सुख की इच्छा कैसे पूरी हो सकती है?
किन्तु इसके विपरित-
यो बन्धन बध क्लेशान् प्राणिनां चिकीर्षति।
स सर्वस्य हित: प्रेप्सु: सुखमत्यन्तमश्नुते।। मनु० ०५/४६
अर्थात्-जो प्राणियों को बंधन और वध का कष्ट नहीं देता वह शभी प्राणियों का शुभचिन्तक अत्यन्त सुख का भागी होता है।
क्यों न होगा?
बुरे कर्मों का परिणाम दुख तथा भले का परिणाम सुख ही होता है।
तब कर्मफल का नियामक परमात्मा उसके ऊपर सुख की वृष्टि क्यों न करेगा?
आगे कहा है-
नाअकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसं उत्पद्दते क्वचित् ।
न च प्राणि वध: स्वग्र्य: तस्मान्मासं विवर्जयेत् ।। मनु० ५/४८
अर्थ-बिना प्राणियों की हत्या किये मांस मिल नहीं सकता और प्राणियों का वध करना कभी भी सुखकारी नहीं,अपितु दुख का ही कारण होता है।
इसलिए मांस सर्वथा निषिद्ध है।
इसलिए तो मनु महाराज ने
आगे लिखा है-
मांस भक्षयिताअमुत्र यस्य मांस मिहाद्म्यहम् ।
एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिण: ।। मनु० ५/५५
अर्थ-जिसका मांस इस जीवन में मैं खाता हूं परलोक में वही प्राणी मुझको खायेगा।
मनीषी लोग मांस की यही वास्तविकता बतलाते हैं।
आगे बताया है-
न भक्षयति यो मांसं विधि हित्वा पिशाचवत् ।
स लोके प्रियतां याति व्याधिभिष्च न पीडत्ते ।। मनु० ५/५०
अर्थ-जो पिशाचो की भांति खाद्दाखाद्द के नियम का त्याग करके मांस नहीं खाता वह मनुष्य संसार में सर्वप्रिय बनता है और रोगों से भी ग्रसित नहीं होता।
इतना ही क्यों?
उन्होंने मांस को अमानवी भोजन कहा है-
यक्ष रक्ष पिशाचान्रं मद्दं मांसं सुरासवम् ।मनु० ५/९६
अर्थात्-मद्द,मांस,सुरा(शराब), और आसव मनुष्य का नहीं राक्षस और पिशाचों का भोजन है।
आगे लिखा है-
वर्षे वर्षेंअश्वमेधेन यो यजेत शतं समा:।
मांसानि च न खादेत् य: तयो: पुण्य फलं सम: ।।मनु० ५/५३
अर्थात् जो प्रतिवर्ष अश्वमेध यज्ञ करता हुआ सौ वर्ष तक लगातार करे उसे जो फल प्राप्त होगा,वही फल उस व्यक्ति को प्राप्त होगा जो जीवन भर मांस न खाये।
मनु जी के शब्दों में जब मांस खाना छोड देने पर सौ अश्वमेध यज्ञों के फल के बराबर फल मिलता है तब उसी अनुपात में मांस खाने पर कितना दुष्परिणाम होता होगा और कितना पाप लगता होगा?
इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
आगे कहा है-
अहिंसया च भूतानां अमृतत्वाय कल्पते । मनु० ३/६०
प्राणियों की हिंसा न करने से मनुष्य मोक्ष के योग्य होता है।
अहिंसया तत्पदम् ।मनु० ६/७५
अहिंसा से मनुष्य परम पद को प्राप्त होता है।
यजमानस्य पशून् पाहि। यजु० १/१
अर्थात् यजमान के पशुओं की रक्षा करो।
पुन: वेद में अन्यत्र कहा है-
वृहद्भिर्भानुभिर्भासन् मा हिंसीस्तन्वा प्रजा:।
यजु० १२/३२
अर्थात् हे मानव तू स्रष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों में ज्ञानी हो अपने शरीर से प्राणियों की हिंसा मत कर।
अथर्ववेद में एक स्थल पर कहा है-
प्रिय: पशूनां भूयासम् ।१७/१/४
अर्थात् हे प्रभु! मैं सभी पशुओं का प्यारा बनूं।


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