Thursday, May 7, 2015

उद्धार का मार्ग - ओ३म् अग्रिमिन्धानो मनसा धियं सचेत मत् र्य:अग्रिमीधेविवस्वभि: ऋ०८.१०२.२२ भावार्थ...

उद्धार का मार्ग -

ओ३म् अग्रिमिन्धानो मनसा धियं सचेत मत् र्य:अग्रिमीधेविवस्वभि: ऋ०८.१०२.२२ भावार्थ -
मन द्वारा अग्रि को, आत्मा को प्रज्वलित करता हुआ मनुष्य सदबुद्धि और सत्कर्म को प्राप्त करे,मै तम को हटानेवाली ज्ञान किरणों द्वारा इस अग्रि को प्रदीप्त करता रहूं |
मै जो प्रतिदिन आग जलाकर अग्रिहोत्र करता हू उससे क्या हुआ, यदि इस अग्रि दीपन से मेरे अंदर की आत्म ज्योति न जग सकी । यदि मेरे प्रतिदिन अग्रिहोत्र करते रहने पर भी मेरे जीवन में कुछ भेद ना आया, मेरा व्यवहार आचरण वैसा का वैसा रहा, ना मुझमे सदबुद्धि ही जाग्रत हुई और ना मै सत्कर्मो में प्रेरित हुआ, तो मेरा यह सब अग्रीचर्या करना व्यर्थ है ,सचमुच हरेक ब्रम्हा यज्ञ अन्दर के यज्ञ के लिए है । बाहर की अग्रि इसलिए प्रदीप्त की जाती है कि उस द्वारा एक दिन अंदर की आत्माग्रि प्रदीप्त हो जाये ।


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