Monday, October 19, 2015

प्रार्थना क्या है? तुम शायद सोचते होओगे मैं तुम्हें कहूंगा कि ‘रघुपति राघव राजाराम’ यह प्रार्थना है।...

प्रार्थना क्या है?
तुम शायद सोचते होओगे मैं तुम्हें कहूंगा कि ‘रघुपति राघव राजाराम’ यह प्रार्थना है। कि ‘ अल्लाह ईश्वर तेरे नाम’, यह प्रार्थना है। यह सब राजनीतियां हैं। इन सबके पीछे खेल हैं। और गंदे खेल हैं। मस्जिद से उठती अजान और मंदिर से उठते घंटियों का स्वर, ये सब खेल हैं, क्रियाकाड़ हैं। वह पुजारी जो मंदिर में घंटा बजा रहा है, उसके भीतर कुछ भी नहीं बज रहा है। और जिसने मस्जिद में जाकर अजान की है, उसके भीतर परमात्मा की कोई स्मृति नहीं, कोई स्मरण नहीं है। एक कृत्य दोहरा रहा है। सदियों से दोहराया गया है। संस्कार है उसे दोहराने का, दोहरा लेता है। मूर्ति देखता है, झुक जाता है, क्योंकि बचपन से झुकता रहा है। एक तरह की संस्कारबद्ध गुलामी पैदा हो गयी। यह प्रार्थना नहीं। चुप्पी के क्षण, मौन के क्षण, सौंदर्य भाव—बोध के क्षण, प्रीति की अनुभूति, मैत्री का भाव, तन्मयता, विमुखता इन शब्दों से मैं कहना चाहता हूं कि प्रार्थना क्या है। इन सारे शब्दों में भी पूरी नहीं हो जाती, बस इन शब्दों में थोड़ेसे इशारे मिलते हैं। तुम जानकर चकित होओगे, हिब्रू भाषा में प्रार्थना के लिए कोई शब्द नहीं।
रोओ, हंसों, गाओ, नाचो, पुकारो, पर प्रार्थना के लिए कोई शब्द नहीं। क्योंकि प्रार्थना शब्दातीत है। हिब्रू भाषा ने सदव्यवहार किया, प्रार्थना को कोई शब्द नहीं दिया। प्रार्थना क्या क्या हो सकती है, उसकी तरफ इशारे किये। रोओ, गाओ, नाचो, हंसों, आनंदमग्न हो पुकारो, झुकों, गिरो, असहाय हो जाओ, अवाक हो जाओ, विमुग्ध बनो, तन्मय हो जाओ, पर प्रार्थना के लिए कोई शब्द नहीं। इन सब में प्रार्थना चुक नहीं जाती, इन सबसे सिर्फ इशारे होते हैं। प्रार्थना इन सबसे बड़ी है। प्रार्थना इतनी विराट है जितना विराट आकाश है। प्रार्थना उतनी ही बड़ी है जितना बड़ा परमात्मा है। प्रार्थना परमात्मा से छोटी नहीं है, क्योंकि प्रार्थना के क्षण में तुम परमात्मा के साथ एक हो जाते हो। प्रार्थना का क्षण सेतु है। जोड़ता है। तुम खो गये। भक्त नहीं बचता। जब भक्ति परिपूर्ण होती है, भक्त नहीं बचता। और जब तक भक्त बचता है तब तक भक्ति परिपूर्ण नहीं है।
शांडिल्य ने इसी को भक्ति के दो रूप कहा। एक को गौणी भक्ति कहा और एक को पराभक्ति कहा। जब तक भक्त बचता है, तब तक गौणी भक्ति। नाममात्र को भक्ति। वस्तुत: नहीं, कहने मात्र को भक्ति। भक्ति जैसी लगती है, इसलिए भक्ति कहा, मगर भक्ति है नहीं। अभी भक्त मौजूद है, भक्ति कहां? जब भक्त खो गया, तब पराभक्ति। तब असली भक्ति, परमात्मा ही बचा! तो प्रार्थना उतनी ही बड़ी है जितना परमात्मा है।
और तुम अगर प्रार्थना को समझना ही चाहो, तो प्रार्थना करनी पड़ेगी, प्रार्थना होना पड़ेगा। मेरे समझाने से नहीं होगी बात। जब भी मन को तरंगित पाओ और ऐसे क्षण सभी को आते हैं, मगर हम चूक चूक जाते हैं। अब प्रार्थना के लिए कोई समय तय मत कर लेना। ऐसा मत कर लेना कि रोज सुबह स्नान करके प्रार्थना करेंगे। जरूरी नहीं है कि स्नान के बाद तुम्हारे मन में प्रार्थना की तरंग हो ही। प्रार्थना को निर्धारित मत कर लेना। प्रार्थना कब आ जाएगी, कब अचानक बादल फट जाएंगे और आकाश खुलेगा, कोई नहीं जानता सुबह कि सांझ, कि भर दुपहर, कि आधी रात! जब भी ऐसा हो जाए कि मन तन्मय हो, जब भी ऐसा हो जाए कि मन में कोई विचार न हों, जब भी ऐसा हो जाए कि मन में कोई ऊहापोह न चलता हो, बवंड़र न उठते हों, आधिया न हों, तरंगें न हों, लहरें न आती हों और ऐसे क्षण सब को आते हैं, मैं फिर दोहरा दूं जब ऐसे क्षण आएं, तब झुक जाना। तब तुम क्या बोलोगे, इसकी बताने की जरूरत नहीं। कुछ बोलने जैसा आ जाए तो बोल लेना, कुछ कहने का मन हो जाए तो कह देना, कोई शब्द भीतर दोहरने लगे तो दोहरा लेना, कोई गीत की कड़ी गूंजने लगे तो गूंज जाने देना, मगर चेष्टा करके मत करना ऐसा। ऐसा मत करना कि अब राम राम दोहराऊं। उसी दोहराने में मर जाएगी प्रार्थना।

प्रार्थना बड़ी कोमल है, तन्वंगी है। यह राम राम का पत्थर तुमने पटका कि मर जाएगी। तुम कोशिश मत करना। ही, भीतर से उठने लगे राम राम, अनायास हो जाए, तो हो जाने देना। फिर ठीक है। अपने से जो हो, ठीक है, किया जाए, वही गलत है। प्रार्थना के जगत में यह नियम है अपने से जो हो जाए।

कभी कभी अनर्गल शब्द उठ सकते हैं। बच्चे, जैसे छोटे छोटे बच्चे कुछ भी शब्द पकड़ लेते हैं, दोहराए चले जाते हैं—कभी वैसा हो सकता है। प्रार्थना में तो निर्दोष बच्चे जैसा हो जाना है। या जैसे कभी तुमने शास्त्रीय संगीतज्ञों को आलाप भरते देखा है, वैसा आलाप पैदा हो सकता है जिसमें कोई शब्द भी नहीं है, सिर्फ स्वर है। या सब सन्नाटा हो सकता है। प्रार्थना बड़ी है, सबको समा लेती है, किसी एक घटना में सीमित नहीं है। कभी सन्नाटा हो जाएगा इतना कि हाथ पैर भी न हिलेगे। और कभी ऐसा हो जाएगा ऐसी ऊर्जा उतरेगी कि नाचे बिना नहीं चलेगा। फिर जैसा हो! कभी बुद्ध की तरह बैठना हो जाए, तो बैठ जाना, कभी मीरा की तरह नाचना हो जाए, तो नाच लेना। चेष्टा करके नाचना भी मत, चेष्टा करके बैठना भी मत। जब तक कृत्य है तब तक प्रार्थना नहीं, क्योंकि कृत्य में कर्ता है। और कर्ता में अहंकार है। तुम सिर्फ खुल जाना। जैसे सुबह की हवा आती है और फूल को नचा जाती है। और सुबह का सूरज उगता है और फूल की पंखुडिया खिल जाती हैं—बस ऐसे! तुम उपलब्ध रहना। तुम परमात्मा कुछ करना चाहे तो होने देना, कुछ न करना चाहे तो चुपचाप जैसे हो वैसे ही रह जाना। जल्दी ही तुम्हें प्रार्थना का स्वाद लगने लगेगा।
प्रार्थना स्वाद है। शब्द नहीं, विचार नहीं, प्रत्यय नहीं, सिद्धांत नहीं, प्रार्थना स्वाद है। तुम्हारे भीतर एक मिठास भर जाएगी। जैसे भीतर कोई मधुकलश फूट गया, रोएं रोएं में मस्ती आ गयी। आंखें गुलाबी हो जाएंगी, जैसे नशे में हो जाती हैं। पैर कहीं के कहीं पड़ेंगे, जैसे शराबी के पड़ते हैं। इन क्षणों की प्रतीक्षा करो। ये क्षण आते हैं। ये छोटे छोटे क्षण हैं। और अगर तुम पकड़ लो क्षण को, तो क्षण बड़ा हो जाएगा।


from Tumblr http://ift.tt/1XfMJzX
via IFTTT

No comments:

Post a Comment