Friday, October 16, 2015

यह पढे थोडा लंबा है लेकिन आप पसंद करेंगे 👇🏿 वेदों में माँस भक्षण की आज्ञा नहीं है और ऋषि-मुनि कभी भी...

यह पढे थोडा लंबा है लेकिन आप पसंद करेंगे 👇🏿
वेदों में माँस भक्षण की आज्ञा नहीं है और ऋषि-मुनि कभी भी गौ माँस नहीं खाते थे
www.vedmandir.com / editor / 18 hours ago

आज भारतीय सनातन संस्कृति, चारों वेद और उस पर आधारित ऋषि-मुनियों के लिखे छः शास्त्र, उपनिषद, महाभारत आदि जो सत्य हैं, उनकी दुर्गति और उनके अपमान जो साक्षात् आजकल दूरदर्शन पर देखने और सुनने को मिलता है, उससे विद्धानों की आत्मा काँप उठती है। वास्तव में इस घर को आग लग गयी है घर के ही चिराग से, क्योंकि अब दूसरे मजहब नहीं हमारे रघुवंशी जैसे हिन्दू ही टीवी पर बोलने वाले संयोजक (एंकर) पूरी ताकत से प्रचार कर रहे हैं कि हमारे ऋषि-मुनि गौ माँस कहते थे और वेदों में लिखा है कि गौ माँस खाना चाहिए। बस भारतवर्ष को बर्बाद होने के लिए, भारतीय संस्कृति, वेद, शास्त्र आदि को बर्बाद करने का जो षड़यंत्र वर्षों से चलाया जा रहा था, उसमें षड़यंत्रकारी/साजिशकर्ता साक्षात् सफल होते नज़र आ रहे हैं क्योंकि उनकी सफलता में यह प्रमाण है कि उन्होंने हिन्दुओं के मुख से यह निकलवाना प्रारम्भ कर दिया है कि ऋषि-मुनि माँस कहते थे और वेदों में माँस खाने की आज्ञा है। इतिहास की मुझे बात याद आ रही है जब औरंगजेब ने वेदों को अग्नि के भेंट कर दिया था और हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाना शुरू कर दिया था तब एक नारी के रोने की आवाज उसके घर से बाहर सुनाई दे रही थी। वह रोते-रोते कह रही थी कि हाय! अब तो सारे वेद जल कर राख हो गए, वेदों का नामोनिशान मिट गया, इत्यादि। तभी उस समय, उधर से वेदों के महान विद्धान बाणभट्ट जी जा रहे थे। उनके कानों में जब यह आवाज पड़ी तो वह उस नारी के मकान के अंदर गए और रोती हुई नारी के समक्ष हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक बोले, हे माँ! मत रो बाणभट्ट अभी जीवित है, जिसे चारों वेद मुंहजबानी याद है। हम अपनी संस्कृति, जो चारों वेद हैं, उनकी रक्षा करना जानते हैं। धन्य हैं ऐसे सपूत जिन्होंने वेदों की रक्षा की और धिक्कार है ऐसे हिन्दू भाइयों को जो अपने मुहँ से वेदों और ऋषियों की निंदा कर रहे हैं। यह अफ़सोस इसलिए भी है क्योंकि निंदा करने वाले ये लोग वेदों और ऋषियों के बारे में तिनका भर भी नहीं जानते हैं और जाने भी कैसे? बाणभट्ट जैसे विद्धानों की तरह गृहस्थाश्रम में ही ब्रम्हचर्य धारण करके माँस-मदिरा, झूठ, छल-कपट आदि सभी विषय विकारों को त्यागकर के इन्होंने न कभी वेद सुने, न ऋषियों के लिखे ग्रन्थ पढ़े-सुने, जिसके फलस्वरूप ये अपनी संस्कृति के बारे में कोई भी ज्ञान नहीं रखते हैं। राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों, न्यायपालिका एवं प्रेस (समाचार पत्र, टीवी इत्यादि) इन जिम्मेदार स्तम्भ को अपनी संस्कृति को समझने और इसकी रक्षा करने का समय नहीं रह गया है। ये स्वयं ही टीवी पर देख-सुन रहे हैं कि अखबार, टीवी चैनल वाले वैदिक संस्कृति और ऋषि-मुनियों के प्रति श्रद्धा को तार-तार करने वाली ख़बरों को किस प्रकार सुखपूर्वक सुना रहे हैं और मजाक उड़ा रहे हैं, और फिर भी सभी तंत्र खामोश है। क्या ये चारों तंत्र जब अपनी-अपनी सभा करते हैं तो अपने तंत्र से सम्बंधित महानुभावों को आमंत्रित करते हैं अथवा उनकी सभा में कोई भी अज्ञानी, मूढ़, उस तंत्र से अनभिज्ञ व्यक्ति उस सभा में बैठ सकता है, कभी नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता। जब आप टीवी और अखबार पर वेद-शास्त्र अथवा ऋषि और गौ-माँस आदि विषयों पर आयोजित बहस देखते हैं तो उस बहस में क्या वेदों के विद्धान बैठे होते हैं या कोई चारों वेदों का ज्ञाता, योगी बैठा होता है? क्या कोई ऋषि परम्परा को जानने वाला विद्धान बैठा होता है? अथवा जैसे बहुत सारे मच्छर भिन-भिन कर रहे होते हैं या बहुत सारे कौए एक ही साथ कांव-कांव कर रहे हों जिसमें न मच्छर और न कौए की बात समझ आती है, ठीक ऐसे ही मनुष्यों की गोष्ठी आयोजित की जाती है जिसमें न चारों वेद और न ऋषि परम्परा का कोई ज्ञाता निर्णय लेने के लिए बैठा होता है। खुद ही सब वकील हैं और खुद ही न्यायाधीश हैं, ऐसा भ्रमित वातावरण बना लेते हैं। योग शास्त्र सूत्र 1/7 में कहा गया है कि जो कोई बात करो तो उसकी सत्यता सिद्ध करने के लिए वेदमंत्र का प्रमाण दो। सांख्य के ऋषि कपिल ने सूत्र 5/51 में यही कहा है कि ईश्वर से उत्पन्न चारों वेद स्वतः प्रमाण हैं। आज कोई कहे कि वेद में माँस खाना लिखा है तो उसे टीवी पर उस वेदमंत्र की पूरी व्याख्या प्रस्तुत करनी चाहिए अन्यथा उसकी वाणी शत-प्रतिशत झूठी है। संस्कृति में विष घोलने वाली है। उदाहरणतः विवेकानंद जी ने कहा कि वेद में माँस खाने की आज्ञा है तो उन्हें वेदमंत्र का प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए, जो नहीं किया। सभी विद्धान जानते हैं कि उन्होंने वेदों का अध्ययन नहीं किया है। वे वेदांती थे, वेदों के ज्ञाता नहीं थे। वे अपने खुद के सिद्धांत पर चले, इसमें कोई बात नहीं पर वेदों को न छेड़े। दूसरा, जब कोई कहे कि ऋषि गौ माँस खाते थे तो क्या ऐसा कहने वालों ने चारों वेदों से ऋषि का व्यक्तित्व जान लिया है? अगर नहीं जाना तो क्यों वेद विरुद्ध असत्य भाषण करके जनता को गुमराह करके और भारतीय संस्कृति में पलीता लगाकर पाप के भागी बनते हैं? वेद में कहीं भी माँस खाने का उपदेश नहीं है अपितु माँस खाने वालो को दंड देने का विधान है। यहाँ मैं किसी समुदाय आदि के विरुद्ध नहीं लिख रहा, केवल वेद-विद्या को बर्बाद होते देखकर, मैं ईश्वर से उत्पन्न, नतमस्तक होने योग्य, श्रद्धा योग्य वेद माता, जो वेदों में उपदेश कर रही है, वैसा-वैसा उपदेश लिख रहा हूँ। आप इन मन्त्रों का वेदों से अध्ययन कर सकते हैं। ऋग्वेद मन्त्र 1/162/12 में कहा गया है कि (ये वाजिनम्) जो लोग शाकाहारी अन्न आदि पदार्थ को (पक्वम्) पकाते हैं और (ये ईम) जो जल को पका हुआ (आहु:) कहते हैं (ये च) और जो (अवर्त:) प्रपर्त हुए प्राणी के (माँस-भिक्षाम्) माँस के न प्राप्त होने को (उपासते) अर्थात माँस का सेवन नहीं करते हैं (तेषाम्) उनका (अभिगूत्ती:) उद्धम (सुरभि:) सुगंध (न:) हम लोगों को (इनवतु) प्राप्त हो। हे विद्धान तू (इति) इस प्रकार अर्थात माँस आदि जो अभक्ष्य हैं उसके त्याग से लोगों को (निर्हर) निरंतर दूर कर। ऋग्वेद मन्त्र 10/27/6 का अवलोकन करें : - इस मन्त्र में परमेश्वर कहते हैं (अनिन्दान) उस परमात्मा को न मानने वाले नास्तिक (श्रितपान) दूसरों के माँस-रक्त आदि पिने-खाने वालो को (दर्शम्) मैं देखता हूँ, जनता हूँ। (एषु) इनके ऊपर (उ नु) अवश्य शीघ्र (पवय: ववृत्यु:) मेरे वज्र गिरते हैं। महाभारत के अनुशासन पर्व के श्लोक का अध्ययन करें :- “आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादका: सर्व एव ते।” अर्थ:- व्यास मुनि जी कहते हैं कि जो मनुष्य वध करने के लिए पशु को लाता है, जो उसे मरने की अनुमति देता है, जो उसका वध करता है तथा जो उसे खरीदता, बेचता, पकाता, और खाता है यह सब के सब माँस खाने वाले ही माने जाते हैं अर्थात ये सब माँस खाने वाले के सामान ही पाप के भागिदार होते हैं। लेख लम्बा होने के भय से यहाँ और अधिक प्रमाण नहीं दिए जा सकते हैं। अत: ऊपर लिखे सरकार, राजनेताओं, आदि चारों स्तम्भ से मेरी प्रार्थना है की वेद विरुद्ध षडयंत्र को रोका जाये और इसे समूल नष्ट किया जाये क्योंकि संस्कृति के नाश का अर्थ होता है देश का नाश। अब दूसरा प्रश्न प्रात: स्मरणीय ऋषि-मुनियों का है। अथर्ववेद मन्त्र 4/30/3 में ईश्वर कहते हैं - "अहम एवं स्वयम इदम वदामि” अर्थात मैं परमेश्वर, स्वयं इस ज्ञान को कहता हूँ जो ज्ञान (देवानाम् जुष्टम्) इस विद्धानों से सेवित होता है और (यम कामये) जिन्हें मैं (परमेश्वर) चाहता हूँ (तम तम उग्रम् कृणोमि) उन-उन को मैं तेजस्वी बनाता हूँ, (तम ब्रह्राणम्) उनको ज्ञानी बनाता हूँ, (तम ऋषिम) उसे वेदमंत्र द्रष्टा - ऋषि बनाता हूँ। अब वेद तो यह कहता है कि ब्रह्म की पदवी, ऋषि की पदवी, विद्धान की पदवी इत्यादि स्वयं परमेश्वर प्रदान करता है। परन्तु वेद-विद्या का अध्ययन न करने वाले और इस प्रकार वेद विद्या के विरुद्ध चलने वाले अज्ञानी स्वयं ही अपने को ब्रह्म कुमार, ब्रह्मर्षि, और अन्य पदवियों से सुशोभित कर रहे हैं। इस प्रकार मुँह मियाँ मिट्ठू बनना वेद विरुद्ध है। ब्रह्मर्षि आदि बनने के लिए अष्टांग योग की साधना करना, समाधि प्राप्त करना, और चारों वेदों का अध्ययन, मनन, चिंतन, और ज्ञान होने आवश्यक है, जो यहाँ देखने सुनने में बिलकुल नहीं आता। कृपया चारों तंत्र इस पर विचार करें। यह स्पष्ट अन्याय है, अज्ञान है, अविद्या है जिससे अंधविश्वास, आडम्बर, थोथे कर्म कांड जनता में फैलता है। पुन: यजुर्वेद मन्त्र 7/4 में उपयामगृहीतोअसि।।। कि हे योगी! तू पुन: अष्टांग योग अर्थात यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान समाधि रूप विद्या को धारण करने योग्य है, प्राणायाम कर और ईश्वर की अनुभूति का आनंद प्राप्त कर। भाव यह है कि कोई भी ऋषि मुनि वेदाध्ययन और अष्टांग योग साधना के बिना और इस प्रकार समाधि पद प्राप्त किये बिना ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता, ऋषि-मुनि कहलाया नहीं जा सकता। अब देखें ऋषि माँस कहते थे या नहीं। इस विषय में वेद तो प्रमाण हैं कि ऋषि मुनि कोई भी माँस नहीं कहते थे, वे अहिंसा के पुजारी थे। इसका एक उदहारण योग शास्त्र सूत्र 2/30 में देखें :- “अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:” अर्थ:- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ये पाँच यम कहलाते हैं। इसकी व्याख्या में व्यास मुनि जी कहते हैं- अहिंसा: सब प्रकार से, सब कला में, सब प्राणियों से चित्त में भी द्रोह न करना अहिंसा कहलाती है। ऋग्वेद मन्त्र 5/64/3 के अनुसार, किसी प्राणी को न मारना, मन, वचन, कर्म से किसी को दुःख न देना, अहिंसा कहलाती है। पुन: ऋषि पतञ्जलि सूत्र 2/31 में कहते हैं: “जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौम महाव्रतम्"। अर्थ: - जाति, देश, काल, समय की सीमा से न बंधे हुए और सब अवस्थाओं में धारण किये जाने वाले, ये पांचो यम, एक सामान जाति, देश, काल, और समय में लागू होते हैं, ये जाति आदि की सीमा से न बंधे जाएं। इस विषय में महर्षि व्यास इस सूत्र की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि यदि मछली मारने वाले को मछली मारने में हिंसा दिखाई देती है और वह यह प्रण करता है कि केवल मछली मारने में ही हिंसा करेगा, अन्य किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करेगा तो यह भाव योगशास्त्र, वेद के विरुद्ध है। उसके इस वचन को सब नकारते हैं। अत: किसी पर भी हिंसा करना पाप है। अब देखें कि चारों वेद यह कहते हैं कि ईश्वर, ऋषि-मुनि का पद उसे देता है जो पाँचों यम, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह; इस पाँचों महाव्रतों का सब अवस्थाओं में पालन करता है, जीवन में धारण करता है तब उसकी समाधि लगेगी, ईश्वर की प्राप्ति होगी और ईश्वर उसे ऋषि का पद देता है और ऊपर के पांच यमों में अहिंसा प्रथम विशेष व्रत है। अब सभी तंत्र श्रद्धा से विचार करें कि यदि ऋषि-मुनि माँस खायेंगें तो उनकी समाधी कैसे लगेगी और उनका ऋषि पद रह कहाँ जायेगा? ईश्वर उनकी दुर्गति न कर देगा। आप स्वयं श्रद्धा से विचार करें कि ऋषियों ने चारों वेदों की शिक्षा को जीवन में धारण किया तो निम्नलिखित अथर्ववेद मन्त्र 4/21/4 का ज्ञान नहीं है- "ता: गाव:” उन गऊओं को (संस्कृतमम् अभि) “संस्कृतत्रश्च पाचक:” भोजन के लिए इनका माँस पकाने वाले का लक्ष्य करके (न उपयन्ति) नहीं प्राप्त होती है अर्थात इनका माँस भक्षण न किया जाये। तब ऐसी वेदों की आज्ञाओं का उल्लंघन करके कौन ऋषि पद प्राप्त कर सकता है अर्थात कोई नहीं। यहाँ मुझे एक शेर याद आता है- “तुम काँटों की बात करते हो, हम फूलों से भी जख्म खाए हैं तुम गैरों की बात करते हो, हमने अपने भी आजमाए हैं।” मैं एक बात साफ़ कर रहा हूँ कि हमारे हिन्दू भाइयों ने ही गौ माता की टीवी और अखबारों में माँस भक्षण की बातें फैला फैलाकर गौ माता का अनदर कर दिया है। माँस खाने वालों को माँस खाने का बढ़ावा दे दिया और इस प्रकार उन्हें पाप का भागी बना दिया है। ये कहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नसिंह कोई चारा-साज़ होता, कोई ग़मगुसार होता। ये राजनेता, मीडिया आदि कैसे जनता के दोस्त हैं, कैसे सलाह देने वाले हैं कि जिससे संस्कृति का नाश हो रहा है। जातिवाद, आडम्बर, अंधविश्वास, गरीबी, अन्याय, नारी-अपमान फैलता जा रहा है। यह हमारी जनता के दोस्त, सलाहकार तब होते जब चारा-साज़ होते अर्थात जनता के दुखों का इलाज करने वाले होते, गौ माँस भक्षण पर पाबन्दी लगाने वाले होते, ऊपर कही समस्याओं को सुलझाने वाले होते, गरीबी और दुखों पर मरहम लगाने वाले होते। ये तो स्वयं जैड श्रेणी की सुरक्षा में रहते हैं। जनता पर गोलियां बरसाती रहती हैं, हिंसा होती रहती है। संस्कृति को पैरों तले कुचला जा रहा है तो ये हमारे दोस्त कैसे, ये हमारे ग़मगुसार/हमदर्द कैसे? इन्होंने तो हमारे दुःख दर्द बढ़ा दिए। मैं पुन: चारों तंत्रों से प्राथना करता हूँ कि भारतीय संस्कृति चारों वेद, उपनिषद, शास्त्र, महाभारत और अन्य ऋषियों द्वारा लिखी गयी धार्मिक पुस्तकों की रक्षा की जाये, इनका अलौकिक ज्ञान विद्यालयों में विद्यार्थियों को दिए जाने का प्रबंध किया जाये, जिससे भविष्य में कोई भी अज्ञानी वेद, ऋषियों और संस्कृति के विरुद्ध आवाज़ न उठा सके और देश सुदृढ़ बनें। धन्यवाद, भवदीय स्वामी रामस्वरूप योगाचार्य


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