Wednesday, October 21, 2015

Rajinder Kumar Vedic “वैदिक ज्ञान” (भाग-7 ) लेखक : राजिंदर वैदिक...

Rajinder Kumar Vedic


“वैदिक ज्ञान” (भाग-7 )
लेखक : राजिंदर वैदिक
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“वैदिक ज्ञान–भाग -6 , तक पढ़ कर हमने जान लिया है की वेद-उपनिषदों का परमात्मा कैसा है? अब परमात्मा प्राप्ति वास्ते उपासना योग यज्ञ को समझने के लिए जीवात्मा (आत्मा) को भी जानना अति आवश्यक है. यह कैसा है? देखिये, कठोउपनिषद: द्वितीय वल्ली : मन्त्र:18 ,19 ,” नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा न तो जन्मता है, और न मरता ही है, यह न तो स्वयं किसी से हुआ है, न इससे कोई भी हुआ है. अर्थार्त यह न तो किसी का कार्य है और न कारण ही है. यह अजन्मा है, नित्य है, सदा एक रस रहने वाला है और पुरातन है, अर्थार्त क्षय और वृद्धि से रहित है. शरीर के नाश किये जाने पर भी इसका नाश नही किया जा सकता है. (18 )
यदि कोई मारने वाला व्यक्ति अपने को मारने में समर्थ मानता है और यदि कोई मारा जाने वाला व्यक्ति अपने को मारा गया समझता है , तो वे दोनों ही आत्मस्वरूप को नही जानते, क्योकि यह आत्मा न तो किसी को मारता है और न मारा ही जाता है. (19 )
श्वेतिश्वरूपनिषद् : पंचम अध्याय: मन्त्र:7 ,“ जो गुणों से बंधा हुआ है, वह फल के उद्देश्य से कर्म करने वाला जीवात्मा ही उस अपने किये हुए कर्म के फल का उपयोग करने वाला विभिन्न रूपों में प्रकट होने वाला है, तीन गुणों से युक्त है और कर्म के अनुसार तीन मार्गो से गमन करने वाला है, वह प्राणो का अधिपति अपने कर्मो से प्रेरित होकर नाना योनियों में विचरता है. (७)
यह जीवात्मा न तो स्त्री है, न पुरुष है, और न वह नपुंसक ही है, वह जिस-जिस शरीर को ग्रहण करता है, उस उससे सम्ब्द्ध हो जाता है.(10 )
संकल्प, स्पर्श, दृस्टि और मोह से तथा भोजन, जलपान और वर्षा के द्वारा इनके संजीव शरीर की वृद्धि और जन्म होते है, यह जीवात्मा भिन्न-भिन्न लोको में कर्म के अनुसार मिलने वाले भिन्न-भिन्न शरीरो को अनुक्रम से बार-बार प्राप्त होता रहता है.(11 )
प्रश्नोपनिषद : चतुर्थ प्रश्न: मन्त्र:9,” यह जो देखने वाला है, स्पर्श करने वाला है, सुनने वाला है, सूंघने वाला है, स्वाद लेने वाला है, मनन करने वाला है, जानने वाला है तथा कर्म करने वाला है, यह विज्ञानस्वरूप पुरुष (जीवात्मा) है, वह भी अविनाशी परमात्मा में भली-भांति स्थित है.
गीता.अ.२/मंत्र: 19 से 30 ,“ जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नही जानते, क्योकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है.(19 )
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन होकर फिर होने वाला ही है, क्योकि यह अजन्मा है, नित्य है, सनातन है और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नही मारा जाता है. (20 )
जो पुरुष आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और कैसे किसको मारता है.(21 )
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रो को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रो को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पूर्णने शरीरो को त्याग कर दूसरे नए शरीरो को प्राप्त होता है.(२२)
इस आत्मा को शस्त्र नही काट सकते है, इसको आग नही जला सकती है, इसको जल नही गला सकता है और वायु इसे नही सुख सकता है.(२३)
क्योकि यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य है, अकतेढ है और निसंदेह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य है,, अचल है, स्थिर रहने वाला है और सनातन है.(२४)
यह आत्मा अव्यक्त है, अचिन्त्य है, विकार रहित है. (२५)
यह आत्मा सबके शरीरो में सदा ही अवध्य है.(३०)
गीता .अ. 3/42 ,43 ,"यह श्रेष्ठ आत्मा इन्द्रियों, मन बुद्धि से क्रमश : सूक्ष्मतर है.
गीता.अ.15 /9 ,” यह जीवात्मा श्रोत्र, चक्षु और त्वचा को तथा रसना, घ्राण और मन को आश्रय करके, अर्थार्त इन सबके सहारे से ही विषयो का सेवन करता है. —-क्रमश
—-राजिंदर वैदिक


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